-अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक
ताइवान को चीन का हिस्सा मानने की नीति को ही एक चीन नीति कहते हैं। लगभग चार दशक से अमेरिका भी इस नीति को मान्यता देता रहा है। पीपुल्स रिपब्लिक आॅफ चाइना जिसे हम आम बोलचाल में चीन कहते हैं, वह वर्ष 1949 में बना था। इसके तहत मेनलैंड चीन और हांगकांग व मकाऊ जैसे दो विशेष रूप से प्रशासित क्षेत्र आते हैं। दूसरी तरफ रिपब्लिक आॅफ चाइना है, जिसका वर्ष 1911 से 1949 के बीच चीन पर कब्जा था, लेकिन अब उसके पास ताइवान और कुछ द्वीप समूह हैं। इसे ताइवान कहा जाता है। एक चीन नीति का अर्थ यह है कि दुनिया के देश पीपुल्स रिपब्लिक आॅफ चाइना (चीन) के साथ कूटनीतिक रिश्ते चाहते हैं तो उन्हें रिपब्लिक आॅफ चाइना (ताइवान) से सभी आधिकारिक रिश्ते तोड़ने होंगे।
कूटनीतिक क्षेत्रों में यही माना जाता है कि चीन एक है और ताइवान उसका हिस्सा है। इस नीति के तहत अमेरिका ताइवान की बजाय चीन से आधिकारिक रिश्ते रखता है, लेकिन ताइवान के साथ उसके अनाधिकारिक पर मजबूत संबंध हैं। इस मुद्दे पर चीन का रुख स्वीकार करना चीन-अमेरिका संबंधों का आधार ही नहीं बल्कि चीन की तरफ से नीति-निर्माण और कूटनीति के लिए भी महत्वपूर्ण है। अफ्रीका और कैरेबियाई क्षेत्र के कई छोटे देश अतीत में वित्तीय सहयोग के चलते चीन और ताइवान दोनों से बारी-बारी रिश्ते बना और तोड़ चुके हैं।
ताइवान ओलिंपिक खेलों में भी चीन के नाम का इस्तेमाल नहीं कर सकता, इसकी वजह से वह लंबे समय तक चाइनीज ताइपे नाम से शामिल होता रहा है। इस नीति से चीन हमेशा फायदे में रहा है और ताइवान कूटनीतिक स्तर पर अलग-थलग है। दुनिया के अधिकतर देश और संयुक्त राष्ट्र उसे स्वतंत्र देश नहीं मानते लेकिन इस सबके बावजूद ताइवान दुनिया से पूरी तरह अलग-थलग नहीं है लेकिन अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ताइवान के राष्ट्रपति साई इंग वेन से फोन पर सीधी बातचीत कर एक चीन नीति को चुनौती दे दी। चीन की सारी आपत्तियों को नजरंदाज करते हुए ट्रंप ने कहा कि मैं एक चीन नीति को पूरी तरह समझता हूं लेकिन यदि व्यापार समेत अन्य चीजों के लिए हम चीन से सौदा नहीं कर पाते हैं तो मुझे इस नीति को जारी रखने का कारण समझ नहीं आता। उन्होंने दक्षिण चीन सागर और उत्तर कोरिया को लेकर चीन के रुख की आलोचना करते हुए कहा कि वे नहीं चाहते कि बीजिंग उन पर हुक्म चलाए।
चीनी विदेश मंत्रालय ने इसकी तीखी आलोचना करते हुए कहा है कि यदि अमेरिका एक चीन नीति को मान्यता नहीं देता तो उसके साथ सहयोग का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने कहा कि ताइवान का मुद्दा चीन की संप्रभुत्ता और क्षेत्रीय अखंडता से जुड़ा है। चीन-अमेरिका संबंध इसी नीति पर निर्भर करते हैं। चीनी विदेश मंत्रालय का कहना है कि चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) यांग जाइची ने हाल में ट्रंप के सलाहकारों के साथ न्यूयार्क में इन मुद्दों पर चर्चा भी की है। ट्रंप प्रशासन में एनएसए की जिम्मेदारी सम्भालने जा रहे रिटायर लेफ्टिनेंट जनरल माइकल फ्लिन से भी उनकी बात हुई है।
ट्रंप के चीन नीति से असहमत होने के संकेत मिलने के बाद मौजूदा ओबामा प्रशासन लंबे समय से जारी नीति पर अपना समर्थन दोहराने के लिए चीनी अधिकारियों से संपर्क में है। ओबामा सरकार का कहना है कि यह निश्चित करना मुश्किल है कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति का वास्तव में उद्देश्य है क्या? ओबामा प्रशासन लाख बचाव करे लेकिन राजनीतिक विश्लेषक कुछ अलग ही कह रहे हैं, जिसके अनुसार ट्रंप के कुछ सहयोगियों ने संकेत दिया है कि ताइवान के राष्ट्रपति से बातचीत करने की योजना लंबे समय की थी और यह व्यापक सामरिक प्रयास का हिस्सा है।
ट्रंप के ताइवानी राष्ट्रपति के साथ फोन पर बातचीत 1979 के बाद से ताइवान और अमेरिका के किसी शीर्ष नेता के बीच हुई पहली बातचीत थी। ट्रंप ने अपने कई ट्वीट में मुद्रा नीति के अवमूल्यन और दक्षिण चीन सागर में सैन्य शक्ति के निर्माण करने को लेकर चीन पर निशाना साधा था। जाहिर है कि यथास्थिति में चीन ज्यादा ताकतवर है और इस वजह से कूटनीतिक रिश्तों के लिहाज से ताइवान बैकफुट पर है।
यह देखना होगा कि ट्रंप का हालिया बयान क्या किसी बदलाव की आहट देता है? ट्रंप चाहते हैं कि जब तक बीजिंग व्यापार और अन्य मुद्दों पर रियायतें नहीं देता तब तक अमेरिका को एक चीन नीति को जारी नहीं रखना चाहिए। हैरानी है कि कठोर प्रतिक्रिया के बावजूद चीन ने कोई राजनयिक विरोध दर्ज नहीं कराया है। ट्रंप के चीन के प्रति अपनाए गए रुख से भारत को क्या लाभ होगा, यह कहना मुश्किल होगा लेकिन इतना तय है कि चीन की दादागीरी को ट्रंप की चुनौती भारत के लिए फायदेमंद ही होगी।