-वीना नागपाल
ऐसा कोई दिन अब शायद ही होता है जब किसी युवक व युवती किशोर, किशोरियां भी सम्मिलित कर लें, की आत्महत्या का समाचार नहीं मिलता। आत्महत्या का तरीका कुछ भी हो पर, यह स्वयं के प्रति बहुत क्रूरता और यहां तक कह दें कि अमानवीयता भी है। अपने ही अस्तित्व को जबरदस्ती मिटा देना मानवता के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है। मानव बनकर मानवता के उद्देश्य से विस्तार देना और व्यापक बनाने के लिए ही तो मनुष्यों को जन्म मिलता है। यदि प्रत्येक जीवन का कोई न कोई मकसद होता है तब यह कैसी घबराहट उदासी और बैचेनी घेर लेती है कि स्वयं ही अपना जीवन नष्ट करने की बात आ जाए और आत्महत्या कर लें। आज यह स्थिति भयानकता की हद तक पहुंच गई है। मानसिक तनाव और दबाव एक बीमारी का रूप ले चुका है। यह रोग जब घर कर लेता है तो उपचार लेने के स्थान पर अपनी जिंदगी ले ली जाती है। दु:ख की बात है कि हमारे समाज में आज भी मानसिक रोगों को न केवल युवा स्वयं छिपाते हैं बल्कि उनके माता-पिता सगे-संबंधी भी ऐसी स्थिति में किसी मनोचिकित्सक से परामर्श लेने के स्थान स्वयं ही समझाइश और सलाह देने लगते हैं। उन्हें लगता है कि हम से अधिक हित चिंतक और आत्मीय कौन हो सकता है? परंतु जिस तरह शारीरिक रोग के लक्षणों के उत्पन्न होने पर तुरंत डाक्टर से परामर्श किया जाता है उसी प्रकार आज इस उदासी और अवसाद के लक्षण दिखाई देने पर मनोचिकित्सक का जब परामर्श लेना जरूरी हो गया है। एक परिचित परिवार की घटना का जिक्र करना यहां ठीक रहेगा। वह युवक जब बाल्यावस्था और किशोरावस्था में था तो परिवार में बहुत घुल-मिलकर रहता था। हंसता-बोलता था। लगभग हम उम्र बहन के साथ छेड़छाड़ करता और उसे स्कूल की बातें बतलाता। उसने स्कूली पढ़ाई पूरी कर कॉलेज में प्रवेश लिया। प्रारंभ के एक वर्ष में वह सामान्य रहा, उसके बाद उसके स्वभाव व व्यवहार में परिवर्तन आने लगा। वह अधिकतर अपने कमरे में ही बंद रहता। यहां तक कि खाना भी वह कमरे में ही मंगवाता। मोबाइल पर हर समय बातें करता रहता। पूछने पर ज्यादा कुछ भी नहीं बताता। परिवार के सदस्य पराए हो गए। परिवार में बेटा और बेटी ही थे इसलिए लाड़ के मारे मां थाली सजाकर बेटे को खाना देती थी। उसे कभी नहीं कहती थी कि वह परिवार के साथ ही बैठे तथा रहे। एक दिन जब बहुत देर हो गई और बेटे ने कमरे का दरवाजा नहीं खोला तो दरवाजा तोड़ने के बाद पता चला कि उसमें बहुत योजना बद्ध तरीके से बिस्तर की चादर को फांसी का फंदा बनाकर पंखे से लटक चुका था। उस सारी बात का अर्थ इतना ही निकलता है कि आज युवक व युवतियां अपने तनावों और दबावों से घिरे हुए इसी तरह अपने आप में सिमट कर संघर्ष करते रहते हैं और जब यह दबाव फटने की स्थिति में आता है तो आत्महत्या कर लेते हैं। इसमें माता-पिता की समझाइश या उनका परामर्श काम नहीं करता। ऐसे युवकों के दिलोदिमाग पर पैरेंट्स की निकटता कोई मायने नहीं रखती। वह उन्हें एक दूरी पर रखते हैं और अपनी घुटन को शेयर ही नहीं करते। इसी तथ्य को आधार बनाकर डियर जिंदगी फिल्म बहुत कुछ कहती और बताती है। आज के माहौल में ऐसी स्थिति की बताना और उसके बारे में जिक्र करना बहुत जरूरी है। वास्तव में मनोचिकित्सक बने शाहरुख खान ने बहुत सी ऐसी परिणिती आत्महत्या में होती है। यदि अपनी युवा संतान के व्यवहार और स्वभाव में कोई बदलाव दिख रहा है तो उसका समाधान स्वयं करने की कोशिश निरर्थक होगी। उसकी इस समय की जरूरतमानसिक चिकित्सक है, पैरेंट्स नहीं हो सकते। इसमें अपनी परवरिश और अपने पैरेंट्स होने की स्थिति को नहीं कोसें और न ही उसे अपूर्ण मानें, यह तो आज के बदले समय के चैलेजिंग रोग हैं, जिनका समाधान मनोचिकित्सक ही दे सकता है। नौबत तो यहां तक आ गई है कि आजकल पैरेंट्स व बच्चों दोनों को ही काउंसिलिंग की जरूरत है।
[email protected]