-पुण्य प्रसून बाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज, घर, रोजगार... देश में बात इससे आगे तो कभी बढ़ी ही नहीं। नेहरू से लेकर मोदी के दौर में यही सवाल देश में रेंगते रहे। अंतर सिर्फ इतना आया की आजादी के वक्त 30 करोड़ में 27 करोड़ लोगों के सामने यही सवाल मुंह बांए खड़े थे और 2016 में सवा सौ करोड़ के देश में 80 करोड़ नागरिकों के सामने यही सवाल है। ये सवाल आपके जेहन में उठ सकता है जब हालात जस के तस है तो किसी को तो इसे बदलना ही होगा। इस बदलने की सोच से पहले ये भी समझ लें कि वाकई जिस न्यूनतम की लड़ाई 1947 में लड़ी जा रही थी और 2016 में उसी आवाज को नए सिरे से उठाया जा रहा है, उसके भीतर का सच क्या है? सच यही है कि 80 लाख करोड़ से ज्यादा का मुनाफा आज की तारीख में उसी पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज घर और रोजगार दिलाने के नाम पर प्राइवेट कंपनियों के टर्न ओवर का हिस्सा बन जाता है।
यानी जो सवाल संसद से सड़क तक हर किसी को परेशान किए हुए हैं कि क्या वाकई देश बदल रहा है या देश बदल जाएगा। उसके भीतर का मजमून यही कहता है कि 150 अरब से ज्यादा बोतलबंद पानी का बाजार है। तीन हजार अरब से ज्यादा का खनन-बिजली उत्पादन का बाजार है। 500 अरब से ज्यादा का इलाज का बाजार है। ढाई हजार अरब का घर यानी रियल एस्टेट का बाजार है। सवा लाख करोड़ से ज्यादा का शिक्षा का बाजार है। अब आपके जेहन में ये सवाल खड़ा हो सकता है कि फिर चुनी हुई सत्ता या सरकारें काम क्या करती हैं, क्योंकि नोटबंदी के फैसले से आम आदमी कतार में है, लेकिन पूंजी वाला कोई कतार में क्यों नजर नहीं आ रहा है और देश में बहस इसी में जा सिमटी है कि उत्पादन गिर जाएगा। जीडीपी नीचे चली जाएगी। रोजगार का संकट आ जाएगा। अगला सवाल यही है कि जब देश में समूची व्यवस्था ही पूंजी पर टिकी है यानी हर न्यूनतम जरूरत के लिए जेब में न्यूनतम पूंजी भी होनी चाहिए और उसे जुगाड़ने में ही देश के 80 फीसदी हिंदुस्तान की जिंदगी जब इसी में खप जाती है तो फिर नोटबंदी के बाद लाइन में खडे होकर अगर ये सपना जगाया गया है कि अच्छे दिन आएंगे तो कतारों में खड़ा कोई कैसे कहे कि जो हो रहा है गलत हो रहा है। सवाल यह है कि क्या सपनों की कतार में खड़े होकर 30 दिसंबर के बाद वाकई सुनहरी सुबह होगी।
वास्तव में 70 बरस में कोई बदलाव आया नहीं और 70 बरस बाद बदलाव का सपना देखा जा रहा है तो इस बीच में खड़ी जनता क्या सोचे? आदिवासी, दलित, महिला, किसान, मुस्लिम, बेरोजगार संविधान में जिक्र सभी का है। संविधान में सभी को बराबर का हक भी है, लेकिन संविधान की शपथ लेने के बाद जब राजनीतिक सत्ता के हाथ में देश की लगाम होती है तो हर कोई आदिवासी हो या दलित, महिला हो या मुस्लिम, किसान हो या बेरोजगारों की कतार, सभी से आंख क्यों और कैसे मूंद लेता है। चुनाव दर चुनाव वोट बैंक के लिए राजनीतिक दल इन्हें एकजुट दिखाते-बताते जरूर हैं लेकिन हर तबका अलग होकर भी न एकजुट हो पाता है न ही कभी मुख्यधारा में जुड़ पाता है। इन सभी की तादाद मिला लो तो 95 फिसदी तो यही है। मुख्यधारा का मतलब महज पांच फिसदी है। यानी जो सपने आजादी के बाद से देश को राजनीतिक सत्ताओं ने दिखाए क्या उसके भीतर का सच सिवाय देश को लूटने के अलावा कुछ नहीं रहा, क्योंकि किसानों की तादाद 18 करोड़ बढ़ गई और खेती की जमीन 12 फिसदी कम हो गई। मुस्लिमों की तादाद साढ़े तीन करोड़ से 17 करोड़ हो गई लेकिन हालात बदतर हुए। दलित भी तीन करोड से 20 करोड़ पार कर गए, लेकिन जिस इकोनॉमी के आसरे 1947 में शुरुआत हुई उसी इकोनॉमी के आसरे 2016 में भी अगर देश चल रहा है तो फिर ये सवाल जायज है कि देश में किसी भी मुद्दे को कोई भी कैसे उठाए।
समाधान निकल नहीं सकता जब तक पूंजी पर टिकी व्यवस्था को ही ना बदला जाए। यानी उत्पादन, रोजगार, नागरिकों के हक और राजनीतिक व्यवस्था की लूट से लेकर मुनाफे के सिस्टम को पलटा ना जाए, तो क्या मोदी पूंजी पर टिकी व्यवस्था बदलने की सोचेंगे। क्या पानी-बिजली-शिक्षा-हेल्थ से निजी क्षेत्र को पूरी तरह बेदखल कर सरकार जिम्मेदारी लेगी। यानी जो तबका कतार में है, जो तबका हाशिए पर है, जो तबका निजी क्षेत्र से रोजगार पाकर जिंदगी चला रहा है। उनकी जिंदगी से इतर नोटबंदी को आधार कालेधन और आंतक पर नकेल कसने को बनाया गया लेकिन भ्रष्टाचार, नकली नोट, आंतकी हमले भी अगर नोटबंदी के बाद सामने आए, तो कहा जाए कि 70 बरस के दौर में पहली बार देश में सबसे बड़ा राजनीतिक जुआं सिर्फ यह सोच कर खेला गया कि इसके दायरे में हर वह तबका आ जाएगा, जो परेशान है और कतार की परेशानी बडेÞ सपने के सामने छोटी हो जाएगी, लेकिन ये रास्ता जा किधर रहा है? इसी दौर में भ्रष्टाचार और ब्लैक मनी का दामन साथ कैसे जुड़ा हुआ है, ये बेंगलूर में चार करोड़ 70 लाख रुपए जब दो कांट्रेक्टर और सरकारी अधिकारी के पास से जब्त किए गए तो सभी के पास नए दो हजार के नोट थे। मोहाली में तो दो हजार के नकली नोट जो करीब 42 लाख रुपए थे, वे पकड़ में आ गए और गुजरात में तो दो हजार रुपए के छपते ही 17 नवंबर को पोर्ट ट्रस्ट के दो अधिकारी के पास से दो लाख 90 हजार रुपए जब्त हुए।
इन सबके बीच नगरोटा की आंतकी घटना ने भी ये सवाल खड़ा किया कि आंतकवाद क्या नोटबंदी के बावजूद अपने पैरों पर खड़ा है। यानी सवाल इतने सारे कि हर जेहन में वाकई ये सवाल है कि क्या वाकई 30 दिसंबर के बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा। देश में जिन चार जगहों पर नोट छपते हैं -नासिक, देवास, सलबोनी और मैसूर। इन जगहों में किसी भी रफ्तार से नोट छापे जाएं, मगर इनकी कैपेसिटी ही हर वर्ष 16 अरब छापने की है। नोटबंदी से करीब 22 अरब नोट बंद हुए हैं, तो फिर हालात लंबे खिंचेंगे। यदि दो की जगह चार शिफ्ट में भी काम शुरू हो जाए तो फिर जिसने नोट निकले रहे हैं और जितने नोट लोगों को मिल रहे हैं। सबकुछ सामान्य हालात में आने में कितने दिन लगेंगे। ये अब भी दूर की गोटी है।