-वीना नागपाल
क्या पशु प्राणी नहीं हैं? क्या वह प्राणी जंगल का हिस्सा नहीं हैं? क्या उनमें प्राण शक्ति का संचार नहीं होता? ऐसा तो नहीं है। सृष्टि में आकार व रूप के कितने विभिन्न प्राणी इस पृथ्वी पर मौजूद हैं। क्या उन्हें सद्व्यवहार और सहज व्यवहार नहीं मिलना चाहिए। होता यह है कि मनुष्य नाम का यह प्राणी अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में डूबा हुआ दूसरे प्राणियों के प्रति बेहद असहिष्णु है। यहां तक कि उसने कितने ही प्राणियों का नामो-निशां तक मिटा दिया है। इसका यह दुर्व्यव्हार अब भी थमा नहीं है। उसे तो लगभग कैद की स्थिति में रहने वाले वन्य प्राणियों को भी तंग करने में वहशी आनंद आता है। उस दिन इंदौर के प्राणी संग्रहालय में लगभग यही हुआ। बाघिन के पिंजरे के सामने परिवारों की भीड़ थी, एक समाचार आया कि छोटे बच्चे बाघिन को कंकर मार रहे थे वह बच रही थी और साथ ही चिढ़ भी रही थी। फिर एक बच्चा या बच्ची उसके सामने हाथ में पकड़ा गुब्बारा नचा रहे थे। गुब्बारा पता नहीं कैसे पिंजरे में उड़कर चला गया। कुछ ही देर में गुब्बारा फूटा (उसे फूटना ही था) और उसकी आवाज से बाघिन बेहद क्रोधित (हो सकता है वह उस धांय की आवाज से डरी भी हो) एक छलांग में ही कूदकर पिंजरे से बाहर आ गई। इसके बाद जो अफरा-तफरी मची वह तो मचना ही थी। अब कुछ प्रश्न जो उठ रहे हैं उनके जवाब दर्शकों के परिवारों को देना ही चाहिए।
पहले तो यह बात बता दें कि आजकल विश्वभर में यह जनमत तैयार हो रहा है कि वन्य प्राणियों को पिंजरों में बंद कर नहीं रखा जाए। यह उनके लिए बहुत अस्वभाविक माहौल होता है। दूसरा जू में प्राणियों को न केवल एक निश्चित दूरी के साथ देखें तथा उन्हें किसी भी प्रकार चिढ़ाने, उकसाने तथा उन्हें किसी भी प्रकार के खाद्य पदार्थ देने की सख्त मनाही होती है जिसे आम तौर पर जू जाने वाले और वह भी विशेषकर भारतीय दर्शक अनदेखा करते हैं। जिन प्राणियों को वह इस तरह बंधा हुआ देखते हैं और मान कर चलते हैं कि वह इन्हें किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं तो उन्हें बच्चों समेत बाड़े तक मुंह चिढ़ाते हैं उनकी गुर्राहट और गर्जना की नकल उतारते हैं। यह आंखों देखी बात है कि दिल्ली के जू में शेर के पिंजरे के सामने एक परिवार के बच्चे केले खाकर छिलके पिंजरे में फेंक रहे थे, जबकि वहां किसी भी प्रकार का खाद्य पदार्थ ले जाने की सख्त मनाही है और उसकी चेकिंग भी होती है फिर भी पता नहीं वह कैसे केले छिपाकर ले आए। एक परिवार के बच्चे चिंपाजी के पिंजरे में जमीन से उठा-उठाकर कंकर से भी थोड़े बडेÞ पत्थर मार रहे थे और वह गुस्से में चिंघाड़ रहा था। बच्चे और उनके परिवार के बड़े भी जोर-जोर से हंस रहे थे। वहां आसपास कोई गार्ड या केयर टेकर भी नहीं था। तब बहुत ढंूढ़ने की कोशिश के बाद एक जू कर्मचारी मिला। उससे शिकायत की। पता नहीं उसने क्या कार्रवाई की पर प्राणियों के साथ होने वाले उस दुर्व्यवहार को देखकर हम जल्दी से जू से बाहर आ गए। अव्वल तो हमारा अनुरोध है कि जू बनाए ही नहीं जाना चाहिए। विश्व के कई देशों ने अपने यहां के जू बंद कर दिए हैं। जहां यह मौजूद हैं वहां यदि सपरिवार आप वन्य प्राणियों को देखने और भ्रमण करने जाते हैं तो वन्य प्राणियों के प्रति शिष्टाचार अपनाएं। उनकी निजता का आदर व सम्मान करें। वह भी प्राणी हैं और अपने प्रति सजग हैं। विशेषकर ‘मम्मीजी’ लोगों से अनुरोध है कि वह जू में वन्य प्राणियों के दर्शन करते समय बच्चों को सिखाएं और तुरंत मना करें कि वह उनके साथ किसी भी प्रकार की अशिष्टता न करें। सृष्टि के समस्त प्राणी जगत पशु-पक्षी, पेड़-पौधों के प्रति शिष्ट रहें। हमारे मनीषियों ने हमें यही शिष्टाचार सिखाया है। इसे क्यों भूल गए हैं?
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