26 Apr 2024, 03:58:54 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-रवीश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
 
सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की दरों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहा जा सकता। जब ये बढ़ जाते हैं तब भी नौकरियां नहीं बढ़ती हैं और जब ये घट जाते हैं तब तो जो नौकरियां होती हैं वो चली जाती हैं। जीडीपी के बढ़ने और घटने की खबरों पर उत्साहित नहीं होने की पुरानी आदत है। इसके पीछे कोई ठोस आर्थिक समझ नहीं है, बल्कि तमाम आंकड़ों को देखें तो इसका गेम समझ आता है। आजकल सरकारें जीडीपी की जुबान में बात करती हैं और लोग भी इस भाषा को समझने का दावा करते हैं। जीडीपी को खारिज नहीं किया जा सकता लेकिन ऐसी क्या जीडीपी है कि जब भी बढ़ती है कुछ लोगों को ही ज्यादा फायदा होता है। जीडीपी बढ़ने और घटने के दौर में ऐसे कैसे हो जाता है कि भारत में एक फीसदी लोगों के हाथ में मुल्क की 58 फीसदी संपत्ति आ जाती है। अमीर और अमीर हो जाते हैं। दुनियाभर में यही पैटर्न है। अगर आप बाकी 99 फीसदी की तरफ से देखेंगे तो जीडीपी के उल्लास के पीछे की उदासी नजर आती है।
 
नोटबंदी के दौरान आपने अभी तक सुना कि फैसला ठीक था लेकिन लागू ठीक से नहीं किया। अगर कोई आर्थिक फैसला ठीक से लागू नहीं हुआ तो उसका इम्पैक्ट भी हो रहा होगा। वो इम्पैक्ट यानी असर क्या है। आपको सीधे सीधे कहना पड़ता है कि नोटबंदी के फैसले ने अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क कर दिया है। बिजनेस जगत के प्रतिनिधियों को लांग टर्म इतना पंसद आ रहा है जैसे वे वर्तमान में जीते ही नहीं हों। उन्हें जो भी उम्मीद होती है लांग टर्म से होती है। हिंदी में इसे आप दूरगामी कह सकते हैं। दूरगामी की समयावधि क्या होती है, किसी को नहीं मालूम। तीन हफ्ते के बाद से दूरगामी शुरू होती है या तीन साल के बाद से।
 
कोई इम्पैक्ट की बात इसलिए नहीं कर रहा है, क्योंकि सरकार नाराज हो जाएगी। आयकर वाले भयंकर कोहराम मचा देंगे। मनमोहन सिंह ने राज्य सभा में कहा कि जीडीपी दो प्रतिशत कम हो जाएगी। लांग रन में हम सब मर जाएंगे। आगे चलकर तो हम सभी मरेंगे यही तो गीता कहती है। आत्मा ही अमर है। वैसे ये अमर आत्मा गिरवी भी तो रखी जाती है। बेची भी जाती है। अर्थशास्त्री भले न जानता हो, मगर समाज जानता है। बहरहाल क्या हम जीडीपी में दो प्रतिशत का संकुचन झेल सकते हैं। जीडीपी में अगर दो प्रतिशत का संकुचन होता है तो नौकरियों पर क्या असर होता है? क्या हमारा नौजवान दो साल इंतजार कर सकता है, क्या दो साल बाद वो नौकरी के लायक रहेगा? यह फैसला देश के युवाओं पर भी असर कर रहा है। एक जनवरी के बाद कौन-सा स्वर्ण युग आएगा, ये हम न जानते हैं और न मानते हैं कि कोई स्वर्ण युग आएगा। फिर भी जानना चाहूंगा कि बिजनेस जगत जीडीपी में दो प्रतिशत के संकुचन पर क्या सोचता है? क्या अब भी वो उम्मीदों से लबालब है? उसके भीतर धीरज है। क्या उसने अपनी फैक्टिरियां बंद नहीं की है? क्या मजदूरों को काम पर आने से नहीं रोका है? क्या ये सब इम्पैक्ट नहीं हुआ है? हर सेक्टर से बुरी खबर आ रही है। फाइनेंशियल एक्सप्रेस ने एक अनुमान छापा कि चार लाख नौकरियां जा सकती हैं तो अगले दिन इकोनॉमिक टाइम्स ने छाप दिया कि छंटनी किसी किसी सेक्टर में ही होगी। अब ये बताइए  कि किसी किसी सेक्टर में चार पांच लाख लोगों की नौकरी चली जाए, वो भी नोटबंदी के फैसले से तो क्या वो भी सामान्य बात है। आपकी नौकरी जाएगी तो आप कहेंगे कि नहीं मुझे फर्क नहीं पड़ता।
 
इकोनॉमिक टाइम्स ने फाइनेंशियल एक्सप्रेस की खबर की हवा निकाल दी है। नौकरी देने वाले कई कंपनियों के मैनेजरों से बात कर बताया है कि एलएंडटी ने जो 14,000 लोगों को निकालने का फैसला किया है, वैसे स्थिति हर जगह नहीं है। इस 14,000 को हाल फिलहाल की सबसे बड़ी छंटनी बताई जा रही है। इसी खबर में चुपके से ये बात भी है कि विकास दर में ठहराव है। कंपनियां आॅटोमेटिक होती जा रही हैं। इससे काम करने वाले लोगों की जरूरत कम रह गई है। फिर ये एक्सपर्ट ये भी कहते हैं कि हम लोग 2016-7 में 7-8 फीसदी अधिक लोगों को काम पर रखेंगे। आपको याद दिलाता हूं। पिछले ही महीने टाइम्स आॅफ इंडिया में खबर छपी थी कि आईआईटी वगैरह में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां पहले दौर के कैंपस में नहीं जा रही हैं, क्योंकि वे नौकरी पर रखने की स्थिति में नहीं है। क्या नौजवानों को इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता? क्या उनके मां-बाप को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता? नहीं पड़ता तो ये किसी भी राजनेता के लिए सबसे अच्छी खबर है।
इसी इकोनॉमिक टाइम्स में कोने में एक और खबर मिली। कोई संस्था है उसने कहा है कि नोटबंदी की जो लागत है, उसका हिसाब लगाएंगे तो 1.28 लाख करोड़ के करीब आती है। इसमें नोट छपाई की लागत से लेकर नोट बदलने में आए खर्चे को जोड़ा गया है। मजदूरों और व्यापारियों ने जो गंवाया है उसका आंकलन किया गया है। किसान से लेकर आम दुकानदारों का हिस्सा है या नहीं, पता नहीं। अगर दो लाख करोड़ का नुकसान उठाकर बैंकों में आठ लाख करोड़ आ भी गया तो कौन-सा तीर मार लिया गया है। 
 
आपका ही तो पैसा है। उसके निकालने पर रोक न लगी होती तो क्या तब भी वो आठ लाख करोड़ होता। गूगल में पुरानी खबरों को देख रहा था। फिच नाम की रेटिंग एजेंसी के  एक्सपर्ट का इकोनॉमिक टाइम्स में बयान छपा है कि मार्च 2017 के वित्तीय वर्ष तक भारत की जीडीपी 7.5 प्रतिशत रहेगी। 2019 में 9 प्रतिशत पहुंच जाएगी। अरविंद पनगढ़िया का बयान है कि अच्छे मानसून के कारण इस साल भारत की जीडीपी 8 प्रतिशत रहेगी। तब किसी को पता नहीं था कि कोई नोटबंदी की योजना बना रहा है। एक जून के एक्सप्रेस के अनुसार वित्त मंत्री जेटली खुश हो रहे थे कि भारत तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। 7.6 प्रतिशत की जीडीपी हमने हासिल की है। इस जीडीपी से 1 प्रतिशत लोग ही कुल संपत्ति के 54 फीसदी का मालिक बन जाते हैं। फिर से दोहरा दे रहा हूं। कुल मिलाकर 8 नवंबर से पहले जीडीपी के बढ़ने का महिमामंडन हो रहा था। 2008 से भारत और दुनिया इसे बढ़ाने के लिए झांसेबाजी कर रही है। बढ़ नहीं रही है। इतनी मुश्किल से अगर बढ़ी हुई जीडीपी मान भी लें तो क्या इसका घटना सामान्य खबर है।
 
बहरहाल, डरिए नहीं, जो हो रहा है, उसे आंखें खोल कर देखिए। लोगों से पूछिए। जानिए और एक दूसरे को बताइए। यह कोई सामान्य दौर नहीं है। आपके लिए बेहतर नागरिक होने का शानदार मौका है। नेताओं के ऊटपटांग आर्थिक समझ को चुनौती देने का समय है। उनकी बातों को ठीक से समझने और सराहने का भी।
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