-अनीता वर्मा
अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकर
वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन दोनों की एक साथ दोहरी मार के फलस्वरूप उपजी समस्याएं भयावह रूप को धारणकर मनुष्यों के गरिमापूर्ण जीवन को खंडित करते हैं। उनके अस्तित्व पर भी संकट उत्पन्न होता है। जैसा अफ्रीका के नाइजीरिया में परिलक्षित हो रहा है। नाइजीरिया में एक तरफ आतंकवादी संगठन बोको हरम का कहर तो दूसरे तरफ भयंकर सूखे के दंश ने मानवीय जीवन के गरिमा को खंडित किया है। स्थिति इतनी भयंकर है कि संयुक्त राष्ट्र को आगाह करना पड़ा है कि यदि समय रहते सहायता नहीं पहुंची तो 75 हजार बच्चों की भूख के कारण मृत्यु हो जाएगी।
नाइजीरिया के उत्तरी हिस्से से लगभग 10 लाख 80 हजार लोगों को बोको हरम आंतकवादी संगठन का कहर टूटने के पश्चात विस्थापित होना पड़ा है। इतनी भारी संख्या में विस्थापित होने के फलस्वरूप भोजन की समस्या का संकट भी गहरा गया है। संयुक्त राष्ट्र भी इस समस्या से पर्याप्त पैसा नहीं होने के कारण बेबस नजर आ रहा है, इसलिए विश्व के समक्ष इस दुर्दशा को वीडियो जारी कर उजागर किया है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक आतंकवाद से बुरी तरह प्रभावित तीन राज्यों में पांच साल से कम उम्र के बच्चे भीषण कुपोषण के शिकार है। विस्थापितों हेतु सुरक्षित माने जाने वाले मदुकरी शहर की जनसंख्या में तीन गुना वृद्धि हो गई है, तो स्वाभाविक है कि खाने के सामानों की किल्लत होगी। नाइजीरिया में बोको हरम का अस्तित्व पश्चिमी शिक्षा के विरोध में साल 2002 में संगठन अस्तित्व में आया और इस्लामी राज्य बनाने हेतु संघर्ष करने के क्रम में हत्या, फिरौती, बलात्कार, विस्थापन का ऐसा दौर चला कि कई लाख बच्चे प्रारंभिक स्कूली शिक्षा से वंचित हो रहे हैं और लाखों लोग भूख से मरने की कगार पर है।
यह सत्य है कि इस भयावह घटना हेतु केवल बोको हरम ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न सूखा भी है। कई सालों से अफ्रीका में कई देश भयंकर सूखे का सामना कर रहे हैं। करोड़ों लोगों को विस्थापित कर भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। 2011 में सूडान में आए भयंकर सूखे के कारण लाखों लोग काल के गर्त में समा गए। केन्या, सोमालिया, युगांडा, जिबुती, इथोपिया का भी बुरा हाल रहा। 50000 से 260000 के बीच मौतों का आकड़ा रहा। पिछले साठ साल में सूखे ने अफ्रीका को बुरी तरह प्रभावित किया है। जिससे वर्तमान में भी खाद्य असुरक्षा से अफ्रीका जूझ रहा है। अभी 2016 में नाइजीरिया में भी भयावह दृश्य है जहां लाखों लोग विस्थापन हेतु मजबूर हैं। स्पष्ट है कि 21वीं सदी में जलवायु परिवर्तन भी एक गंभीर समस्या है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने हेतु 2015 में पेरिस में सम्मेलन हुआ था, जिसे कोप 21 नाम दिया गया। इस सम्मेलन में सभी सदस्य देश एक साथ आकर एक साल के अंदर पेरिस समझौते को लागू करने हेतु प्रतिबद्ध दिखे ताकि ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती के बढ़ते तापमान को रोका जाए। इस सम्मेलन में सभी देशों की जिम्मेदारी भी तय की गई। भारत ने तो इस समझौते पर 2 अक्टूबर 2016 को हस्ताक्षर कर दिए। पेरिस समझौता 4 नवंबर 2016 से लागू हो चुका है, लेकिन नवंबर 2016 में मोरक्को में 2016 में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के दौरान विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से भागते नजर आए। इस सम्मेलन में यह स्पष्ट हुआ कि धरती के बढ़ते तापमान को रोकने की मुहिम में पैसा ही सबसे बड़ी रुकावट है। पेरिस समझौते को लागू करने, 2018 तक नियम तय करने और पारदर्शिता का भी पूरा ख्याल रखने के वादे के साथ दो हफ्ते से चल रहा मोरक्को सम्मेलन 18 नवंबर 2016 को समाप्त हो गया। यह आश्चर्य की बात है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है और कई सालों से बड़े-बड़े वादे होते हैं। सात साल पूर्व कोपनहेगन सम्मेलन में धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस कम करने की बात कही गई थी, लेकिन कार्बन उत्सर्जन को रोकने हेतु अब तक कोई ठोस उपाय नहीं किया गया है। मोरक्को सम्मेलन मे पेश हुए विश्व मौसम संगठन की रिपोर्ट चिंताजनक है। रिपोर्ट के अनुसार धरती का तापमान घटने की बजाय करीब 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। यह तथ्य स्पष्ट करता है कि अब तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने हेतु जमीन पर कुछ नहीं किया गया है केवल वादे ही किए जाते हैं। जो यथार्थ में जम़ीन पर लागू नहीं होते हैं। जिस तरीके से धरती का तापमान बढ़ा है। ऐसी आशंका जताई जा रही है कि अगला साल इस साल से गर्म हो सकता है।
पेरिस समझौते के तहत एक ग्रीन क्लाइमेट फंड बनना है जिसकी सहायता से प्रत्येक वर्ष गरीब और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने हेतु 100 बिलियन डॉलर दिए जाने का प्रावधान है, लेकिन हकीकत यह है कि इस फंड में नाममात्र की ही धनराशि जमा हुई है। गरीब और विकासशील देश सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा हेतु अमीर व विकसित देशों की ओर देख रहे हैं, लेकिन इसे लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है कि कौन देश कितनी राशि की मदद करेगा। मोरक्को जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भाग लेने वाले सदस्य विकसित और अमीर देशों का यह रवैया वाकई हैरान करने वाला है, क्योंकि सम्पूर्ण विश्व ही ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में है। उसमें विकसित, विकासशील, अल्पविकासशील सभी देश शामिल हैं। फर्क केवल इतना है कि विकसित देशों के संसाधन संपन्न होने के परिणामस्वरूप वर्तमान में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की मारक क्षमता से अपना बचाव कर लेते हैं, लेकिन अगर इसी प्रकार धरती का तापमान बढ़ता रहा तो विश्व के सभी देश बुरी तरह प्रभावित होंगे और विश्व का यह दृश्य भयावह होगा।
बेहतर है कि विकसित और अमीर देश आने वाले खतरे को गंभीरता से लें। गरीब व विकासशील देश जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचाने में असक्षम होते हैं, जिसके कारण उस देश की राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित होती है और अस्तित्व ही संकट में पड़ जाता है। जैसे हाल में नाइजीरिया में सूखे और आतंकवाद का भयावह प्रभाव परिलक्षित हो रहा है। मोरक्को सम्मेलन में एक सकारात्मक बात यह रही कि स्वच्छ ऊर्जा की प्राप्ति के प्रति 20 देशों ने सोलर एलायंस पर हस्ताक्षर कर अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया है, लेकिन यह आश्चर्य है कि एलायंस में भारत, फ्रांस और ब्राजील के अलावा कोई बड़ा देश शामिल नहीं है। इस सोलर एलायंस के तहत सौर ऊर्जा की अच्छी संभावना वाले लगभग 120 देशों के साझा संगठन की बात है। इसका उद्देश्य सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना है ताकि सौर ऊर्जा की मांग में वृद्धि कर इसकी कीमत को न्यूनतम किया जा सके। वस्तुत: सौर ऊर्जा जलवायु परिवर्तन से निपटने मे सहायक है, क्योंकि पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा प्रकृति प्रदत्त साधन है। इस प्रकार आंतकी कृत्य और जलवायु परिवर्तन दोनों की एक साथ मारक क्षमता काफी भयावह है, जिससे निपटने हेतु कारगर उपाय होने चाहिए।