24 Apr 2024, 19:05:15 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

कुछ दिनों तक उस बच्चे (सातवीं/आठवीं क्लास में पढ़ने वाले को बच्चा ही कहा जाएगा। हांलाकि उसे किशोर भी कहा जा सकता है) की बातों का पैरेंट्स ने बुरा नहीं माना, परंतु धीरे-धीरे उन्हें लगने लगा कि ‘बेटा’ बहुत कड़वे जवाब देने लगा है। कोई भी बात करो तो वह वाक युद्ध पर उतर आता है। उससे पूछा जाता है कि वह क्या खाएगा। पहले तो वह बताएगा नहीं कि वह खाने में यह पसंद करेगा? इस पर वह रूखा सा उत्तर देगा - कुछ भी बना लो। जब खाना लग जाएगा और टेबल के ईर्द-गिर्द परिवार वाले बैठने लगेंगे तब पूछेगा कि क्या बना है? बनी हुई खाने की वस्तु को वह नकार देगा और तुरंत मोबाइल उठाकर नंबर लगाकर वह अपने लिए पिज्जा का आॅर्डर दे देगा। लगभग यह रोज का ही किस्सा है। उससे कई बार पूछा जाता है कि वह खाने में क्या पसंद करता है जिससे कि मां उसे मनचाहा खाना तैयार करके खिला दे पर, वह तब कुछ नहीं बताता और जब खाना सामने आता है तो वह नाक-भौ सिकोड़ता है। पर, वह यहीं नहीं रुकता। स्कूल से आने के बाद वह अपने कमरे में बंद हो जाता है। स्कूल की किसी भी घटना के बारे में बताने में उसे कोई रुचि नहीं है। मां कोशिश करती है कि वह बातों-बातों में खुल जाए पर उसने तो चुप्पी साधी होती है। एक और परिवार में भी किशोर बच्चा है और पैरेंट्स उसकी खीझ और गुस्से से परेशान हैं। अंतत: बहुत ध्यान करने और समझदारी दिखाते हुए इन पैरेंट्स ने स्कूल में जाकर उसके टीचर्स से बात करने का निर्णय लिया। आजकल स्कूल में मनोचिकित्सक भी निमंत्रित किए जाते हैं और समय-समय पर वह बच्चों की कार्यशालाएं लेते हैं जिससे कि यदि बच्चा मानसिक दबाव तथा तनाव में है तो इसे वह कम कर सके। उन पैरेंट्स को पता चला कि उनके बच्चे स्कूल में बहुत अच्छा व्यवहार करते हैं। बहुत मनोयोग से अध्ययन करते हैं। वह बहुत शांत और हंसमुख स्वभाव के माने जाते हैं। पैरेंट्स यह सुनकर हैरान रह गए। उनके बच्चों का व्यवहार पहेली बना हुआ था पर, स्कूल वालों को उनसे कोई शिकायत नहीं थी। तब काउंसिलिंग की गई तो पता चला कि उनमें से एक बच्चे के पैरेंट्स बहुत टोका-टोकी करते थे। बाल्यावस्था में तो बच्चे ने इसके लिए कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की पर, किशोरावस्था आते ही वह बदल गया और बहुत चिढ़चिढ़ा हो गया। दूसरे बच्चे की समस्या थी कि उसके माता-पिता दोनों कामकाजी थे और या तो  थकान के अथवा परस्पर सामंजस्य न होने के कारण बात-बात पर झगड़ पड़ते थे। ऐसे माहौल का बच्चा पैरेंट्स की क्यों सुनेगा इसलिए वह अपनी खुशी और आनंद के क्षण स्कूल में सहपाठियों के बीच ढंूढ़ता है। उसे घर का माहौल कतई पसंद नहीं था।

ऐसे बहुत से घर-परिवार हैं जो अपनी ही समस्याओं के कारण बच्चों को समझ नहीं पाते हैं। भावुक और संवेदनशील बच्चे घर में घुटन महसूस करते हैं पर, स्कूल उनके हमजोलियों और टीचर्स के कारण अधिक सुखद लगता है। यदि आपके बच्चों में किशोरावस्था या उससे भी पहली अवस्था में कोई चेंज आए तो मनोवैज्ञानिक काउंसिलिंगजरूरी है। स्कूल के प्राचार्य और टीचर्स से मिलकर उनसे गाइडेंस अर्थात सुझाव व सलाह लें। आजकल बहुत सारे पैरेंट्स ऐसा ही कर रहे हंै। हो सकता है कि टीचर्स माता-पिता से भी बेहतर बच्चे को समझते हों। उद्देश्य यही है कि बच्चा भटके नहीं, इसलिए उसके व्यवहार को समझने के लिए स्कूल यदि बेहतर स्त्रोत है तो उसकी सहायता ली जाए।

[email protected]

  • facebook
  • twitter
  • googleplus
  • linkedin

More News »