24 Apr 2024, 01:20:47 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

परिवार की युवा बेटी जल्दी-जल्दी तैयार हो रही थी। इस बीच उसके मोबाइल की घंटी (क्यूजिबल टोन) बीच-बीच में बजती रही, जिसे वह कंधे पर टिकाकर अपने सिर को एक ओर लटकाकर कान से सटाकर सुनती जा रही थी। जाहिर था यह उनके मित्रों की टोली के ही सदस्यों के फोन थे, क्योंकि वह बार-बार यही कह रही थी कि- बस! दो मिनट और...। तैयार ही हो रही हूं।’’ अब, वह तैयार हो चुकी थी और मम्मी को आवाज लगाती हुई बोली...मम्मी जा रही हूं। बाय-बाय।’’ मम्मी पास आकर बोली - देख!  देर मत लगाना। टाइम पर आ जाना। ‘‘मम्मी की यह बात उस घबराहट से उपजी हुई थी जिसका कारण आजकल होने वाली दुर्घटनाओं जनित समाचार थे। मम्मी की बात सुनते ही उस युवा चेहरे पर खीझ भरे भाव आ गए थे। उसे मन ही मन लगा कि वह अपना ख्याल रखना जानती व समझती है। मम्मी व्यर्थ में ही परेशान रहती हैं और उपदेश देती रहती हैं। क्या वह युवती पूर्णता सही थी।

एक और घटना...। वह युवक भी मित्रों के समूह के साथ किसी पार्टी में जा रहा था। कान में मोबाइल के ईयर फोन ठूंसे हुए थे। वह अपना प्रिय म्यूजिक सुन रहा था। उसने अपनी बाइक स्टार्ट करने की तैयारी की ही थी कि पापा ने देख लिया। उन्होंने तुरंत टोका बाइक चलाते हुए कान से ईयरफोन निकाल लेना। इसे उन्होंने संकेतों से बताने की कोशिश की पर, युवा बेटे ने उन पर उड़ती हुई नजर डाली और बाइक स्टार्ट कर उड़ते हुए गेट के बाहर निकाल गया। उसके चेहरे पर भी वही भाव आए कि क्यों व्यर्थ में उपदेश दे रहे हैं? बाइक की सवारी करना और ईयरफोन लगाकर अपना प्रिय म्यूजिक सुनने के दोनों काम एक साथ किए जा सकते हैं। ‘‘डेडीजी कूल रहो...क्यों घबराते रहते हो।

अजीब बात है कि आजकल माता-पिता यह कहते नहीं थकते कि वह तो अपने युवा बच्चों के मित्र हैं। उनके बीच तो पूरी तरह मैत्री भाव रहता है। यदि ऐसा है तो उन्हें पैरेंट्स की कही बात उपदेश क्यों लगती है, वह उस पर कान तक नहीं धरना चाहते। कई परिवारों की युवा संतानें अपने मूल स्थान से दूसरे बड़े शहरों में शिक्षा प्राप्त करने या नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहरों में आती हैं। पढ़ने वाले बच्चे अपने माता-पिता से खूब आर्थिक सहयोग तो लेते हैं परंतु वह शायद ही कभी पैरेंट्स से इस बात को शेयर करते हों कि वह अपने मित्रों के साथ पार्टी भी करते हैं। वह जब अपने माता-पिता से मिलते हैं तो कभी उन्हें अपनी पूरी गतिविधियों की जानकारी नहीं देते कि कहीं कोई उपदेश न सुनना पड़ जाए इसलिए ही माता-पिता को जब पता चलता है कि उनकी युवा बेटी या बेटे ने फांसी लगा ली या बेटी दूसरी-तीसरी मंजिल से कूद गई तो वह हक्के-बक्के रह जाते हैं। कई बार वह पढ़ाई के दबाव में ही आत्महत्या कर लेते हैं। यदि वह समय रहते माता-पिता से बात कर लेते तो शायद इस बातचीत से राह निकल आती।

युवा अपनी स्वतंत्रता तो पूरी तरह भोगना चाहते हैं पर, इसके साथ यदि वह अपने माता-पिता की सरल और सीधी सलाह का पुट भी लगा लें तो वह इस स्वतंत्रता का भरपूर आनंद उठा सकते हैं। यह ‘‘प्रीचिंग’’ की बात नहीं है कि कोई उपदेशों को कड़वा घूंट निरंतर पिलाता रहें। पैरेंट्स तो आजकल इस बात को मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि युवाओं को मनोरंजन और आनंद उठाने के मौके दिए जाने चाहिए। तब उनसे यह कैसा दुराव कि उनकी सहज बात को भी उपदेश देने का कड़ुआ घूंट माना जाए।

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