25 Apr 2024, 19:57:38 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
लेखक समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्यों की मजहबी विद्वता पर शक नहीं किया जा सकता लेकिन तीन तलाक के मसले पर उनका नजरिया तसल्ली नहीं देता। पर्याप्त जानकारी न रखने वाले सामान्य जन के मन में भी कई सवाल उठते हैं। इनका समाधान होना चाहिए। विधि आयोग ने केवल तीन तलाक मसले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से उसका रुख जानना चाहा था। ऐसे में प्रश्न यह है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसे समान नागरिक संहिता से क्यों जोड़ दिया। उसने समान नागरिक संहिता लागू करने का आरोप लगाकर विरोध शुरू कर दिया, जबकि यह विषय तो चर्चा में ही नहीं था। ऐसे में क्या यह माना जाए कि समान नागरिक संहिता में केवल तीन तलाक का ही मसला शामिल है। पर्सनल लॉ बोर्ड की मुहिम से तो यही दिखाई दे रहा है।

दूसरा प्रश्न यह कि इस मसले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने केंद्र सरकार पर हमला क्यों बोला। इस संबंध में किसी प्रकार की पहल सरकार ने की ही नहीं थी। मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक पर रोक की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की थी। मसला संविधान व समाज से जुड़ा था। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से जवाब मांगा था। सरकार ने इसके लिए बेहतर तरीका चुना। उसने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित अनेक संगठनों का रुख जानने का प्रयास किया। सरकार इस विषय की संवेदनशीलता को देखते हुए व्यापक विचार-विमर्श चाहती थी। क्या ऐसे में यह बेहतर नहीं होता कि मुस्लिम पर्सनल लॉ केवल तीन तलाक पर अपने विचार सरकार को देता। सरकार की ओर से कोई दबाव तो था नहीं। पर्सनल लॉ बोर्ड पूरी तरह स्वतंत्र था। वह तीन तलाक पर रोक का तर्कसंगत विरोध भी कर सकता था। वह इसके प्रति असहमति से सरकार को अवगत करा सकता था। किन मजहबी नियमों के कारण वह तीन तलाक को जारी रखना चाहता है, इसकी जानकारी भी सामान्य नागरिकों को हो जाती, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बेवजह सरकार पर हमले का रास्ता चुना। ऐसे में उससे जिन प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर देने की अपेक्षा थी, वह पीछे छूट गए।

तीसरा प्रश्न यह भी है कि जब बाइस मुस्लिम देशों ने तीन तलाक पर रोक लगा दी है, तो क्या भारत में ऐसा नहीं हो सकता। इनमें दस देश तो ऐसे हंै, जहां शरीयत कानून लागू है। यह ठीक है कि हम दूसरे देशों से तुलना न करें, लेकिन मजहबी ग्रंथ व नियम जब देस-काल की सीमा से ऊपर होते हंै, तो यह जिज्ञाषा उत्पन्न होती है। क्या यह माना जाए कि जिन मुस्लिम देशों ने तीन तलाक पर रोक लगाई, वहां के लोग पर्याप्त जानकारी नहीं रखते। हमारे देश में ऐसा नहीं है। दोनों बातें एक साथ सही नहीं हो सकतीं। फिर जिन्होंने दूसरे देशों से तुलना न करने की बात कही, वही अपने पक्ष में अमेरिका का उदाहरण देने लगते हंै। उनके यहां अमेरिका के कई प्रदेशों में अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं। यह भी विचित्र तर्क है। यहां तो प्रश्न केवल तीन तलाक का है। यह सही है कि संविधान के नीति निर्देशक तत्व के अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता का उल्लेख है। इसमें कहा गया कि राज्य समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करेगा। जाहिर है कि संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझकर यह अनुच्छेद शामिल किया होगा। बाद में न्यायिक फैसलों से स्पष्ट हुआ कि राज्य नीति निर्धारण में निर्देशक तत्वों को मार्गदर्शक रूप में अपनाएगा। फिर भी समान नागरिक संहिता को संवेदनशील मुद्दा मानते हुए, इस पर अमल नहीं किया गया। पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी समान नागरिक संहिता को अपने एजेंडे में शामिल करती थी, लेकिन बाद में गठबंधन राजनीति और न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत इस मुद्दे को आम सहमति बनने तक छोड़ दिया गया। भाजपा नेतृत्व वाली सरकार आज भी इसी नीति पर चल रही है। सरकार का रुख पूरी तरह स्पष्ट है। केंद्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा भी है कि तीन तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने हमसे सवाल पूछा था। इसलिए हमने जवाब दिया। समान नागरिक संहिता का मामला विधि आयोग के पास है। उस पर बोलना उचित नहीं है। मतलब जिस विषय को सरकार ने उठाया ही नहीं, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उसी पर हंगामा खड़ा कर दिया।
जब समान आपराधिक कानून को समान नागरिक संहिता से नहीं जोड़ा गया, उसे सहज रूप में स्वीकार किया गया तब तीन तलाक को ही समान नागरिक संहिता का हिस्सा क्यों माना जा रहा है। क्या इस मसले पर, मुस्लिम महिलाओं के विचार पर समाज में चर्चा नहीं होनी चाहिए। ऐसा भी नहीं इसका दायरा मुस्लिम महिलाओं तक सीमित है, इसके अंतर्गत हिंदू सहित अन्य धर्मों की महिलाओं की स्थिति पर भी विचार की पहल की गई है। महिलाओं की गरिमा, सम्मान व अधिकारों का संरक्षण होना चाहिए। इसीलिए विधि आयोग ने प्रश्नावली केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ही नहीं भेजी थी। इस कार्य को व्यापक नजरिए से देखा गया। विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बीएस चौहान ने कहा भी है कि विधि आयोग देश के संविधान के अनुसार कार्य करेगा। अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों के विचार थोपे नहीं जाएंगे। हमने प्रश्नावली को जनता के बीच रखा है, जिससे सभी पक्ष जवाब दे सकें। प्रश्नावली सभी धर्मों के लिए है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यदि मुस्लिम महिलाओं की अपील, न्यायिक प्रक्रिया, विधि आयोग के प्रयास व सरकार के संवैधानिक जवाब पर विचार किया होता, तो वह ऐसी प्रतिक्रिया न देते। वस्तुत: बोर्ड ने अपील करने वाली मुस्लिम महिलाओं, सुप्रीम कोर्ट व विधि आयोग सभी पर शक किया है। इन्होंने अपना फोकस समान नागरिक संहिता पर टिका दिया। उसके बाद तीन तलाक के मसले को पीछे छूटना ही था। कहा गया कि समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ते कदमों का विरोध करते हुए विधि आयोग के सवालों का बायकाट किया जाएगा। यह मुसलमानों के खिलाफ है। समान नागरिक संहिता को विविधता के लिए खतरा बता दिया गया, जबकि प्रश्न तीन तलाक व बहुविवाह के थे। बायकाट की जगह इनका जवाब देने से स्थिति साफ होती। प्रश्नावली में यहां तक था कि क्या तीन तलाक रद्द किया जाए, या प्रथा के रूप में कायम रहे, लेकिन कानूनी मान्यता न हो, या कुछ बदलाव करके बने रहने दिया जाए। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड नेकनीयत दिखाता तो सवालों का जवाब आ जाता। वह इस प्रथा को बनाए रखने, रद्द करने, सुधार करने के सुझाव दे सकता था, लेकिन वह इन प्रश्नों से बच निकला। इसी प्रकार बहुविवाह, संपत्ति में बंटवारे जैसे प्रश्न मुस्लिम के साथ हिंदू संगठनों से भी किए गए। प्रश्न समाज की आधी आबादी से जुड़े थे। ऐसे में बेहतर होता सभी धर्मों के संगठन इसमें सहयोग देते। इससे न्यायपालिका का कार्य भी आसान होता, लेकिन इस संवेदनशील मसले पर कुछ संगठनों ने समाधान की जगह सियासत को तरजीह दी।

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