25 Apr 2024, 07:00:09 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-मनोज श्रीवास्तव
प्रमुख सचिव, संस्कृति, मध्यप्रदेश शासन


कुछ दिनों पूर्व जब आचार्य विद्यासागरजी से मेरी पहली मुलाकात हुई तो मुझे उनका हिंदी भाषा के प्रति प्रेम देखकर बहुत अच्छा लगा, किंतु जब मैंने उनका महाकाव्य मूक माटी पढ़ा तो मुझे यह तय करना मुश्किल हो गया कि उनका भाषा प्रेम अधिक है या भाषाधिकार। यह एक बड़े आनंद का प्रसंग है कि विद्यासागरजी सहित बहुत से जैनाचार्यों को मैंने बहुत ही रचनात्मक, बहुत ही सृजनशील होकर साहित्य और कविता की सेवा करते हुए देखा है और मैं यह कह सकता हूं कि आनुपातिक रूप से जितनी रचनाधर्मिता उन्होंने दिखाई है, समकालीन भारत में किसी और पंथ और मत ने नहीं दिखाई। मुनि क्षमासागरजी की कविताएं मुझे याद आती हैं। ज्ञानसागरजी ने संस्कृत में चार महाकाव्य लिखे। मुनि मधुकरजी की ‘गुंजन’ या ‘स्वर गूंजे निर्माण के’ जैसी काव्य कृतियां।

कई बार आश्चर्य होता है कि इन जैनाचार्यों की इतनी रागमुक्ति, इतनी वीतकामता, इतनी विरति, इतनी अनीहा के बाद भी इतनी रस-राशि इनकी कविता में कैसे उतर आती है। विद्यासागरजी की यह महाकविता जिसका नाम ‘मूक माटी’ है, को पढ़ते हुए मुझे लगा कि उन जैसे निरस्तराग, उन जैसे विरजस्क, उन जैसे जितसंग, उन जैसे निवृतात्मा ने कैसे सम्मोहित करने वाली कृति लिखी है। एक बार आरंभ करो तो फिर आप उसकी वशिमा से छूट ही नहीं पाते। क्या यह कुछ फ्रेंच मनोवैज्ञानिक ‘कुए’ के ‘लॉ आॅफ रिवर्स इफेक्ट’ जैसा कुछ है कि जो तुरायण को प्राप्त कर गया उसी ने तृषा को जाना, कि जो कैवल्य पर पहुंचा, उसी ने कशिश की क्रीड़ा पहचानी।

कई चैनलों पर प्रतिदिन हम संतों को प्रवचन देते हुए देखते हैं, प्राय: वह व्याख्या, टीका और भाष्य होता है और मैं उसकी कोई अवगणना भी नहीं करना चाहता, उसका भी उपयोग और महत्व है, लेकिन कई बार वह लोएस्ट कॉमन डिनोमिनेटर प्रोग्रामिंग है। वह सर्जना नहीं है। किसी कलाकृति को अस्तित्व में लाना एक अलग ही तरह का प्रसव है और प्रसव व प्रसंस्करण में फर्क होता है। उस रचना समय की विधायकता हमें किसी हद तक सृजनहार के प्रकोष्ठ में ला खड़ा करती है। किसी काव्य का सृष्टा अपनी रचना से उस एक ऋण को किसी हद तक उतारता है, जो इस सृष्टि में उसे लाने वाली मां का ऋण है। वह रचयित्री हमारे कृतित्व से ही अपने चरणों में किसी आभार-पुष्प की छुअन महसूस करती है।

बहरहाल, यह एक डिजाइनर रिलीजन का दौर है, लेकिन जिसे कविता कहते हैं, वह उन्हें उपलब्ध नहीं है। जिसे शक्तिशाली भावनाओं का स्वत:स्फूर्त उच्छलन कहते हैं, वह उन्हें उपलब्ध नहीं है। सहृदय की रस-निष्पत्ति अध्यात्म के बाजार की रसकेलि और रसरंग से कुछ दूसरी ही चीज है। आचार्यश्री की यह महाकविता इन सबके बीच एक अलग ही रस-भूमि पर खड़ी है, बल्कि जैसा कि इस कविता-पुस्तक का नाम और विषय-वस्तु है यह भूमि का रस बताने वाली कृति है ‘मूक माटी’। आचार्यश्री ने इस पुस्तक में रस-चर्चा भी सविस्तार की है। उन्होंने इन काव्य-रसों की शक्तियों और सीमाओं पर एक बिल्कुल अलग ही अंदाज में चर्चा की है जो रस-सिद्धांत शास्त्रियों के लिए भी सर्वथा अनूठी घटना है। खेद-भाव और वेद-भाव, रुद्रता और भद्रता, अभय और भय, संगीत और संगातीत, विषय- लोलुपिनी और विष?-लोपिनी करुणाएं जैसी अनेक ऐसी उद्भावनाओं को वे सामने लाए हैं कि रसशास्त्र के इतिहास में एक नई लकीर खिंच गई है। अध्यात्म का वाणिज्यीकरण करने वाले रस के इस विवेचन से दूर हैं। यह रस मन के निर्माल्य से उपजता है। कविता सुखासक्ति में संभव नहीं होती। वह तो विद्यासागरजी जैसे आत्मजयी और विगतस्पृही संत के निर्विण्ण अनुभव का प्रसाद है, एक तप:पूत हृदय का। मुझे याद पड़ता है कि चार्ल्स बोदलेयर ने पाप के पुष्प (फ्लावर्स आॅफ ईविल) नामक कविता पुस्तक लिखी थी। आचार्यश्री की यह कृति उसके ठीक दूसरे ध्रुवांत पर है। यह पुण्य-पुष्प है।

जिसके मन में एक योगारूढ़ नीरवता हो, जिसके मन में एक संयतात्मा की प्रशांति हो, जिसकी शांतचित्तता दुनिया पर हावी दुनियादार शोरगुल के छद्म को भेद चुकी हो, जिसका मन एक महामौन के अतल में नित्यस्थ हो, सिर्फ वही मूक की आवाज को सुन सकता है। सिर्फ वही व्हाइसलेस की व्हाइस बन सकता है। मूक माटी दरअसल म्यूट माटी है। उनकी आवाज जो स्पीचलेस हैं, जो इनआर्टिकुलेट हैं। जिनके शब्द उनके भीतर ही घुटकर रह जाते हैं, जिन पर सदियों की चुप्पी छाई है, जिनके संताप का संप्रेषण नहीं हुआ है- उनकी आवाज इस महाकाव्य में हैं। आज के युग में जबकि एफ.एम. रेडियो और कमर्शियल चैनल्स वर्बल डायरिया के शिकार हैं, जहां शब्द इतनी रफ्तार और इतनी डेसिबेल के साथ हवा में उछाले जा रहे हैं, जितने कि मानव इतिहास में पहले कभी नहीं- ऐसे में भी एक बड़ा वर्ग है जो अपनी आवाज का प्रतिनिधित्व कहीं नहीं पाता। एक साइलेंस्ड मेजोरिटी, एक जमीन से जुड़ा खामोश बहुमत, जो एक नीरव अस्तित्व में किसी तरह दिन काट रहा है, जिसे चुप कर दिया गया है - यह महाकाव्य प्रकृति के एक तत्व की मूकता के माध्यम से उसी की व्यथा-कथा को प्रतिबिंबित करता है। आवाज आजकल हमारे समय और समाज की शक्ति-संरचना को प्रतिबिंबित करती है। जिसकी आवाज जितनी ज्यादा उभर के आ रही है, वह इस पॉवर-स्ट्रक्चर में उतना ही प्रमुख है और जो धूल-धूसरित है, वह इस बेबेल्स टॉवर में, इस चंडूखाने में दो बोल उचारने का भी अधिकारी नहीं। इस महाकाव्य के शब्दों में - ‘इसकी पीड़ा अव्यक्ता है/ व्यक्त किसके सम्मुख करूं।’ यही इस कृति के कवि के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। अव्यक्ता को अभिव्यक्ति देना। वह जो यंत्रणाओं के बीच भी खामोश है। कवि विद्यासागरजी के शब्दों में -‘यातनाएं पीड़ाएं ये/ कितनी तरह की वेदनाएं/ कितनी और... आगे/ कब तक... पता नहीं/ इनका छोर है या नहीं/ घुटन छुपाती छुपाती/ ... घूंट पीती ही जा रही हूं/ केवल कहने को/ जीती ही जा रही हूं।’

आचार्यश्री कवि-स्वभाव के हैं। वे शब्द से ही तर्क की रोचक कमाई करते हैं और अपनी ही अनंत आवृत्ति से थक गए शब्दों का ऊर्जायन-सा करते हैं। इसमें कुछ अटपटा लगे भी तो क्या। निराला के ‘ताक कमसिन वारि’ से लेकर प्रयोगवाद और अकविता के अनुभवों के बारे में क्या कहेंगे? सो जिसका जीवन कविता हो गया हो, उसकी कविता जीवनदायिनी हो ही जाती है।  

 

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