-हर्षवर्धन पांडे
लेखक समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।
उत्तरप्रदेश के साथ-साथ उत्तराखंड में विधानसभा चुनावों की उलटी गिनती शुरू होते ही भाजपा की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं। 2017 के उत्तराखंड चुनावों की बिसात के केंद्र में जिस तरह हरीश रावत आ गए हैं, तो उनके मुकाबले के लिए भाजपा में वर्चस्व की जंग चल रही है। नेतृत्व के गंभीर संकट से जूझ रही उत्तराखंड भाजपा में इस समय पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूरी को 2017 की चुनाव समिति की कमान सौंपकर भावी मुख्यमंत्री के तौर पर फिर से मैदान में उतार सकती है। 2012 के चुनावों से ठीक पहले निशंक को हटाकर जिस अंदाज में भाजपा आलाकमान ने विधानसभा चुनावों से ठीक पहले खंडूरी को सीएम के रूप में प्रोजेक्ट किया था, उसका लाभ भाजपा को इस रूप में मिला कि उत्तराखंड में खंडूरी ने भाजपा के डूबते जहाज को तो बचा लिया, लेकिन जहाज का कैप्टन जनरल कोटद्वार में पार्टी के भितरघात के चलते खुद चुनाव हार गया। शायद यही वजह रही कि 2012 के चुनावों में भाजपा कांग्रेस से महज एक सीट पीछे रही जिसके बाद खंडूरी की हार ने निर्दलीयों के साथ कांग्रेस के मुख्यमंत्री के रूप में विजय बहुगुणा की ताजपोशी का रास्ता साफ किया था।
उत्तराखंड में खांटी कांग्रेसी हरीश रावत के कद के आगे सिवाय खंडूरी के प्रदेश भाजपा का कोई चेहरा सामने नहीं टिकता। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने फरवरी 2014 में अपनी ताजपोशी के बाद से जिस तरह टी ट्वेंटी अंदाज में पूरे उत्तराखंड में बैटिंग की है, उससे भाजपा की दिलों की धड़कनें बढ़ी हुई हैं। चुनावी मोड में होने के कारण उनके द्वारा ताबड़तोड़ घोषणाएं की जा रही हैं। भले ही ये सभी घोषणाएं पूरी न हो पाएं, लेकिन राज्य में हरीश रावत ने विजय बहुगुणा के सीएम पद से हटने के बाद कांग्रेस को मजबूत स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। खंडूरी, कोश्यारी और निशंक के केंद्र में जाने के बाद से राज्य में दूसरी पंक्ति में भाजपा का बड़ा जनाधार वाला कोई ऐसा नेता नहीं बचा है, जिसके करिश्मे के बूते पर भाजपा की वैतरणी पार हो सके। भाजपा आलाकमान भी अब 11, अशोका रोड में इस बात को लेकर मंथन करने में जुटा है कि भाजपा की इस त्रिमूर्ति को साथ लिए बिना 2017 में भाजपा का बेड़ा पार लगना नामुमकिन है, लिहाजा वह भी फूंक-फंूक कर कदम रख रही है।
पहाड़ों में अभी सर्द मौसम चल रहा है और यहां के मिजाज को देखते हुए इस बात की संभावना प्रबल है कि अगले बरस चुनावी डुगडुगी बज जाए, ऐसे माहौल में बिहार गंवाने के बाद भाजपा उत्तराखंड में खंडूरी के करिश्मे को मैजिक बनाने की संभावनाओं पर मंथन करने में लगी हुई है। हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड,जम्मू से इतर उत्तराखंड में किसी चेहरे को प्रोजेक्ट न करने की अपनी रणनीति को उसे सिरे से बदलने को मजबूर होना पड़ सकता है। जानकार भी मानते हैं कि उत्तराखंड की मुख्य लड़ाई हिमाचल सरीखी ही रही है और यहां की राजनीति भी भाजपा और कांग्रेस के इर्दगिर्द ही घूमती रही है। लिहाजा किसी को प्रोजेक्ट करने से मुकाबला रोचक हो सकता है। उत्तराखंड में बारी-बारी से हर पांच बरस में यह दोनों राष्ट्रीय दल अपनी सरकार बनाने के लिए सामने आते रहे हैं। भाजपा में खंडूरी 75 पार कर चुके हैं, लिहाजा वह मोदी की टीम के खांचे में फिट नहीं बैठते। मोदी के मंत्रिमंडल में शामिल होने की उनकी संभावनाएं उत्तराखंड से सबसे प्रबल थी, लेकिन उनकी उम्र बड़ी बाधक बन गई थी, लेकिन भाजपा आलाकमान देर सबेर अब इस बात को समझ रहा है कि उत्तराखंड के चुनावी समर में खंडूरी उसका तुरूप का इक्का एक बार फिर से साबित हो सकते हैं, लिहाजा पार्टी के कई बड़े नेता उनके नेतृत्व में रावत सरकार के खिलाफ न केवल बड़ी जंग लड़ने का मन बना रहे हैं, वे चुनावी चेहरे के रूप में एक्शन मोड में जनरल खंडूरी को लाने का मन बना रहे हैं। पार्टी के अंदरूनी सर्वे में भी खंडूरी 75 की उम्र पार होने के बाद भी मुख्यमंत्री की पहली पसंद आज भी बने हैं, तो इसका बाद कारण उनकी साफगोई है। आज भी खंडूरी की पूरे राज्य में मजबूत पकड़ रही है। साथ ही संघ का आशीर्वाद अब भी उनके साथ है। भाजपा में अटल, आडवाणी और डॉ. जोशी का युग भले ही ढलान पर हो, लेकिन मार्गदर्शक मंडल के आडवाणी और डॉ. जोशी की गुड बुक में आज भी खंडूरी का नाम लिया जाता है। इसका कारण राजनीति में उनका समर्पण और ईमानदारी रही है जिसके तहत अतीत में वाजपेयी सरकार में खंडूरी ने स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के आसरे पूरे देश में नई लकीर खींच दी और खुद यूपीए सरकार ने भी इस बात को माना कि केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री के तौर पर खंडूरी के कार्यकाल में सड़कों का बड़ा जाल न केवल बिछा, बल्कि प्रतिदिन कई किलोमीटर सड़क ने कुलांचे मारे। इसके आस पास वर्तमान मोदी सरकार के कैबिनेट मंत्री तक भी नहीं फटक सकते। उत्तराखंड में अपने दूसरे टर्म में खंडूरी ने जिस अंदाज में सरकार चलाई उसकी मिसाल आज तक देखने को नहीं मिलती। उस दौर को याद करें तो न केवल नौकरशाही उनसे खौफ खाती थी, बल्कि माफियाओं और बिल्डरों के नेक्सस को तोड़ने में उन्होंने पहली बार सफलता पाई, जिसके चलते खंडूरी ने बेदाग सरकार चलाने में सफलता पाई।
भाजपा में इस बात को लेकर मंथन चल रहा है कि खंडूरी को साधकर उत्तराखंड में हरीश सरकार को चुनौती दी जाए। उत्तराखंड में किसी को सीएम के रूप में प्रोजेक्ट करने की बिसात जिस तरह उलझती ही जा रही है और दावेदारों की भारी भरकम फौज हर दिन दिल्ली दरबार में हाजरी लगा रही है, उसके मद्देनजर शायद भाजपा आलाकमान अब खुद अपना फैसला आने वाले दिनों में सुनाए, जिसके तहत खंडूरी को चुनाव समिति की कमान सौंपी जा सकती है । पिछले दिनों भाजपा के एक गुप्त सर्वे में भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर मंथन हुआ है, जिसमें यह बात खुलकर सामने आई है कि अगर मजबूत विकल्प पर भाजपा ने विचार नहीं किया तो हरीश रावत 2017 में कांग्रेस की उत्तराखंड में वापसी करने में सक्षम हैं।
खुद सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेता भी इस बात को मानते हैं हरीश रावत के मुकाबले के लिए अगर भाजपा में खंडूरी सामने लाए जाते हैं, तो उत्तराखंड में मुकाबला कांटे का रहेगा क्योंकि उनकी लोकप्रियता हरीश रावत की तरह पूरे राज्य में है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या आने वाले दिनों में भाजपा उत्तराखंड में खंडूरी को सीधे प्रोजेक्ट कर हरीश रावत सरकार के खिलाफ अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ती है या चुनाव समिति की कमान सौंपकर उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर आगे रखती है?