-वीना नागपाल
बच्चों की खिलखिलाती हंसी और उसके गुनगुनाते स्वर कहीं खो गए हैं। हंसी तो बहुत दूर की बात है, बच्चे मुस्कराते तक नहीं हैं। ऐसा तो बच्चों का स्वभाव नहीं होना चाहिए। बच्चों की जब हंसी गूंजती है तो बड़ों को तो बेसाख्ता हंसना ही पड़ता है। जब घर का ऐसा वातावरण हो तो तनाव व मानसिक दबाव तो कहीं भी और किसी तरह भी प्रवेश पा ही नहीं सकता। पर, यही तो दुखद स्थिति है कि बच्चे मुस्कराते ही नहीं हैं तो बड़े कैसे आनंद व खुशी पा सकते हैं। पूरा परिवार एक-दूसरे से कटा-कटा लगता है।
पिछले दिनों एक बहुत ही चौंकाने वाली खबर पढ़ी। दिल्ली के एक स्कूल के दो किशोरों ने मिल कर अपने शिक्षक को चाकुओं से गोद डाला और उनकी मृत्यु हो गई। किशोरों का यह आक्रोश और क्रोध तो देखिए! जो उम्र हंसने-खेलने व मुस्कराने की है, उस उम्र में बच्चों के मन में बदले की इतनी गहरी दुर्भावना पल रही है कि अपने शिक्षक की हत्या करने में उन्हें एक पल का भी संकोच नहीं हुआ। उन्होंने कैसे इस हत्या की योजना बनाई होगी और कैसे उन दोनों ने अपने स्कूल बैग में चाकू रखे होंगे? और कैसे उन्होंने पूरे योजनाबद्ध तरीके से उस क्षण की प्रतीक्षा की होगी कि जब शिक्षक को अकेले पा कर उन पर पूरे जोर से चाकुओं से वार किए होेंगे? यह सब दृश्य जब आँखों के सामने आता है तो बहुत भयावह अनुभूति होती है। इस दृश्य में दो किशोर जब चाकुओं से वार करते दिखाई पड़ते हैं तो समझ से परे यह बात हो जाती है कि हंसने-खेलने की उम्र वाले किशोर इतनी हिंसा कर रहे हैं। उस शिक्षक का कसूर क्या था? केवल इतना ही कि उसने उन दो किशोरों को दो दिन पहले उनके क्लास में देर से आने पर तथा नियमित अध्ययन करने पर केवल डांट था?
यह आक्रोश समझ नहीं आ रहा है। इसका कारण केवल इतना ही समझ में आता है कि बच्चे बहुत मानसिक तनाव में हैं। उन पर बस्तों का बोझ तो है ही जिनके कारण वह उसे ढोते-ढोते थक जाते हैं। साथ ही घर में भी उन पर निरंतर दबाव बनाया जाता है कि वह अध्ययन में ही लगे रहें। कोई उनको बाहर जाकर खेलने तथा अपने हम उम्र बच्चों के साथ हंसने की बात ही नहीं करता बल्कि देखा जाए तो माता-पिता इस पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं कि यदि बच्चा बाहर खेलने जाता है या अपने दोस्तों के साथ मिल कर हंसना-खेलना चाहता है तो इसे समय की बर्बादी (वेस्ट आॅफ टाईम) कहा जाता है। उन्हें निरंतर यही लगता है कि बच्चों की या तो पुस्तकों में सर गढ़ा रहे या फिर वह स्कूल के प्रोजेक्ट बनाने की सोचता रहे। बच्चे अपने बड़ों के बीच ही यदि घिरे रहेंगे तो वह हंसगे कब? वह मुस्कराएंगे कब? उनके हम उम्र मित्रों व सहेलियों के साथ उनके अपने ही विषय होते हैं जिन पर उन्हें हंसी आती है और उनकी खिलखिलाहट सुनाई देती है। जब वह इस तरह से मुस्कराएंगे व हंसेंगे तब वह कब यह समय पाएंगे कि अपने मानसिक दबाव व तनाव को पाल सकें। उनमें एक सहजता व स्वभाविकता बनेगी जिसमें क्रोध व आक्रोश का कोई स्थान नहीं रह पाएगा। न तो स्कूल में और न ही घर आने पर यदि उन्हें खेलने, हंसने और मुस्कराने का समय ही नहीं दिया जाएगा तो यह तय है कि वह खीझने व क्रोधित होने के अतिरिक्त और क्या कर सकते हैं इस स्थिति पर पेरेन्टस और स्कूल वाले जल्दी ही चेत जाएं तो अच्छा होगा। यह बाल व किशोर उम्र क्रूर हिंसा से हत्या व आत्यहत्या करने की नहीं है। यह तो मुस्कराने की उम्र है जिसके लिए पर्याप्त मौका व समय दिया जाना चाहिए।
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