-वीना नागपाल
कोलकाता से एक शुभ समाचार चित्र सहित प्रकाशित हुआ है। चित्र (फोटो) में एक महिला मां दुर्गा की मूर्ति को आकार दे रही है। समाचार केवल एक पंक्ति में लिखा गया है-अब महिलाएं मां की मूर्ति गढ़ रही हैं। इस एक पंक्ति में बहुत कुछ कह दिया गया।
कितना समय हो गया है कि पुरुषों द्वारा ‘मां’ की मूर्तियां गढ़ी जाती रही हैं। यह पुरुषों का ही एकाधिकार का क्षेत्र था। क्या महिलाएं ‘मां’ की मूर्ति गढ़ने के लिए अपवित्र मानी जाती हैं? पर मां तो स्वयं सशक्त महिला के रूप में ही हैं और जब उन्हें सर्वोत्तम रूप से पवित्र मानकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है तब उन्हीं की अंश महिलाएं उनकी मूर्ति निर्मित करने से क्यों वंचित रखी गईं? और महिलाओं ने भी इस स्थिति को स्वीकार कर लिया और मां की आकृति बनाने की दिशा में न तो कभी सोचा और न ही इसमें भाग लेने के लिए सक्रियता दिखाई। आज पता नहीं कैसे महिलाएं इस क्षेत्र में भी उतर आई है।
यह शुभ है। देखा जाए तो महिलाओं की दुर्गा मां की मूर्ति बनाने में विशेष रुचि हो सकती है। उनसे बेहतर मां के हाव-भाव व चेहरे पर उतरी मातृत्व की झलक के साथ-साथ शक्ति का प्रकाश और कौन बेहतर उकेर सकता है। महिलाएं तो स्वयं इस मातृत्व की प्रतिमूर्ति होती हैं। प्रकृति की ओर से उन्हें सहज व स्वभाविक ‘मां’ बनने का वरदान प्राप्त है। वह तो इसकी एक-एक अनुभूति से न केवल परिचित होती हैं बल्कि उसे पल-पल जीती भी हैं, इसलिए महिलाएं मां की मूर्ति गढ़ने में वही सब अनुभूतियां सजीव कर सकती हैं। उनके हाथों से गढ़ी मां दुर्गा की मूर्तियों का रूप व आकर्षण नितांत अलग होगा। पता चला है कि कोलकाता में महिलाओं ने स्वयं ही आगे आकर इस क्षेत्र में अपनी हस्तकला व कौशल प्रदर्शित करने में भाग लिया। इतना अच्छा है कि महिलाओं के इस तरह भाग लेने पर पुरुषों ने उन्हें समानता से स्वीकारा और इसे लेकर कोई समस्या नहीं खड़ी की।
सत्य तो यही है कि जब नवरात्र में शक्ति पूजन किया जाता है तब इसके प्रत्येक कार्य में महिलाओं की सक्रिय सहभागिता होना चाहिए। महिलाओं की जन्म देने की शक्ति और स्त्रोत को ही अमान्य कर उन्हें अपवित्र ठहराने का उन पर बेबुनियाद आरोप लगाकर उन्हें पूजा और आराधना से वंचित रख गया। यह सब एक सुनिश्चित साजिश के तहत किया गया, जिससे महिलाएं स्वयं को दोयम समझने लगें और उनसे पुरुषों के साथ समानता की बात न की जाए। यह विचार अपने आप में बहुत रोमांचित व उत्सुकता जगाता है कि जब महिलाएं मां की मूर्ति को गढेÞगी तो तां दुर्गा के चेहरे पर क्या भाव होंगे? महिलाओं के हाथों में जब उनकी आंतरिक भावनाएं आकर बोलेंगी तब मां की मूर्ति का एक-एक हाव-भाव कितना मातृत्व, ममता और भाव से भरा होगा। अपने शरीर सौष्ठव की गढ़न के एक-एक अंग में वह तेज और शक्ति का प्रतीक लगेगी। यह तेज कुछ अलग प्रकार का होगा, जिसमें मातृ शक्ति के साथ-साथ स्त्री शक्ति की भाषा का एक-एक शब्द गूंजेगा।
उन महिला कलाकारों को बहुत-बहुत बधाई जिनके मन में दुर्गा की मूर्ति गढ़ने का विचार आया और जिन्होंने इस विचार को साकार भी किया। दरअसल शक्ति की आराधना यदि महिला शक्ति द्वारा की जाए तो अधिक सार्थक लगेगी और उससे यह भी संदेश जाएगा कि महिला शक्ति जीवंत है और वह नौ दिन तो क्या पूरे समय ही इसी रूप में विराजमान रहती है। उसके प्रति आदर व सम्मान का यह भाव हमेशा बना रहना चाहिए। वह सृष्टि की शक्ति है इसलिए ही आज उसके रूप को मातृशक्ति द्वारा गढ़े जाने से एक नई परिभाषा पाई है, जो महिला हाथ आज मां की मूर्ति गढ़ रहे हैं वह सम्मान के पात्र हैं। महिलाओं द्वारा मां की मूर्ति गढ़ना कितनी सार्थकता का संदेश है।