29 Mar 2024, 16:42:00 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-आरके सिन्हा
राज्यसभा सदस्य


अब आप न्यूयार्क से लंदन और न्यूजीलैंड से नाइजीरिया, सिंगापुर से सिडनी, फिजी से फिनलैंड, म्यामार से मारीशस कहीं भी चले जाइए, आपको हिंदी सुनने को मिल जाएगी। बाजारों, मॉल्स, यूनिवर्सिटी कैंपस, एफएम रेडियो और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर लोग हिंदी में बातचीत करते हुए मिल ही जाएंगे। यानी कि हिंदी ने एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय भाषा के  रूप में अपना स्थान बना लिया है। इसकी दो-तीन वजहें  समझ आ रही हैं। पहली, पूरी दुनिया में करीब डेढ़ करोड़ से ज्यादा प्रवासी भारतीय बसे हुए हैं। ये आपको संसार के हर बड़े-छोटे शहरों में मिल ही जाएंगे। 

ये भारतीय अपने साथ हिंदी भी लेकर बाहर गए हैं। भले ही तमिलनाडु का कोई शख्स भारत में तमिल में ही बतियाता हो, पर देश से बाहर वो किसी अन्य भारतीय के साथ हिंदी ही बोलता है। उससे भी मिस्र, मलेशिया, थाईलैंड,  खाड़ी और अफ्रीकी देशों में  एयरपोर्ट पर मिलने वाले टूरिस्ट गाइड से लेकर होटलों का स्टाफ तक भी, भले ही टूटी-  फूटी हिंदी में ही सही, संवाद स्थापित करने कि कोशिश करते हैं। दरअसल, जैसे ही हम भारतीय किसी अन्य देश के एयरपोर्ट से बाहर निकलते हैं हमें भारतीय के रूप में पहचाना जाने लगता है। आपके क्या हालचाल हैं? भारतीय हो? कैसे हो? नमस्ते, प्रणाम जैसे छोटे वाक्य और शब्द सुनने को मिलने लगते हैं। दूसरा, अब भारतीय भी दुनियाभर में घूम रहे हैं। इनकी आर्थिक स्थिति अब सुधर रही है। ये दुबई से लेकर डरबन तक हवाई से आॅस्ट्रेलिया तक जा रहे हैं, दुनिया देखने के लिए, मौज-मस्ती करने के लिए। इसलिए इन धनी हिंदुस्तानियों को प्रभावित करने के लिए तमाम देशों के पर्यटन उद्योग से जुड़े लोग कुछ हिंदी सीख रहे हैं। हाल ही में स्काटलैंड, लंदन से लेकर सिंगापुर और आॅस्ट्रेलिया गया तो मुझे थोड़ी बहुत हिंदी बोलते हुए अफ्रीकी देशों के अधिकांश नागरिक मिले। लंदन में केन्या मूल के एक कारोबारी मिले। उन्हें बातचीत में बताया कि मैं भारत से हूं। इस पर वे कलेजे पर हाथ रखकर कहने लगे, भारत तो मेरी जान है। मैं जयपुर में पढ़ा हूं।  चेस कैनयाटा नाम के वे सज्जन गुजारे लायक हिंदी जानते-समझते थे।

एक बार मैं मारीशस की राजधानी पोर्ट लुईस के व्यस्त बाजारों के बीच पैदल निकल रहा था कि कोई पुकार आई, आईए आईए, एकदम सस्ता है, बढ़ियां है। मैंने दाएं-बाएं देखा, सारी दुकानों पर चाइनीज ही बैठे नजर आए, तब तक कपड़े की एक दुकान से एक बूढ़े चाइनीज ने इशारा किया, अंदर आ जाइए। मैं अंदर गया और पहला प्रश्न पूछा, आपको हिंदी, आती है क्या? चाइनीज  दुकानदार मुस्कुराया और बोला, माल बेचना है तो हिंदी भी तो सीखना ही पड़ता है न? यहां भारतीय बड़ी संख्या में आते हैं, फ्रेंच और अंग्रेज के बराबर ही। मुझे तो चाइनीज के अलावा फ्रेंच, अंग्रेजी, हिंदी और क्रियोल (स्थानीय अफ्रीकी)  सभी कुछ बोलना जरूरी होता है। नहीं तो मेरा माल बिकेगा कैसे? यह है बाजारवाद की मजबूरी। जब हिंदी भाषी खरीददारों में शामिल हो गए तो बाजार को हिंदी सीखनी पड़ी।           

यकीन मानिए हिंदी को जानने-समझने की लालसा समूचे संसार में देखी जा रही है। बेशक हिंदी प्रेम और मानवीय संवेदनाओं की बेजोड़ भाषा है। लगभग सभी टैक्सी वाले भी कुछ न कुछ हिंदी समझ लेते हैं। कम से कम एकाध लाइन हिंदी फिल्मों का गाना तो गुनगुना  ही देते हैं।   

इसके साथ ही भारत की पुरातन संस्कृति, इतिहास और बौद्ध धर्म से संबंध भी स्वाभाविक रूप से बाकी विश्व को हिंदी भारत से जोड़ते हैं। कम ही लोगों को मालूम है कि टोक्यो यूनिर्विसिटी में 108 वर्ष पूर्व सन् 1908 में ही हिंदी के उच्च अध्ययन का श्रीगणेश हो गया था। कुछ साल पहले इस विभाग ने अपनी स्थापना के 100 साल पूरे किए। जापान में भारत को लेकर जिज्ञासा के बहुत से कारण रहे। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर चार बार वहां की यात्रा पर गए। बौद्ध धर्मावलंबी देशों के लोगों का  भारत से स्वाभाविक संबंध तो रहा ही हैं। अब तो जापानी मूल के लोग ही टोक्यो यूनिवर्सिटी में हिंदी भी पढ़ा रहे हैं। क्या यह छोटी बात है? वहां पर हर वर्ष करीब 20 विद्यार्थी हिंदी में  स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए दाखिला लेते हैं। अमेरिका के भी येले, न्यूयार्क, विनकांसन वगैरह विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है। इनमें छात्रों की तादाद भी लगातार बढ़ती जा रही है। वहां भी अमेरिकी या भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक ही हिंदी अध्यापन कर रहे हैं। जर्मनी और पूर्व सोवियत संघ और उसके सहयोगी देशों जैसे पोलैंड, हंगरी, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया वगैरह में भी हिंदी के अध्ययन की लंबी परम्परा रही है। कुछ दिन पहले जर्मनी के ट्यूबिन्यन विश्वविद्यालय में कार्यरत प्रोफेसर दिव्यराज अमिय मुझसे मिलने आए थे। वे बता रहे थे कि जर्मन मूल के हिंदी और संस्कृत के प्राध्यापक जितने गंभीर और गहरे भाषा विज्ञान के विशेषज्ञ हैं उतने तो भारतीय मूल वाले प्राध्यापक भी नहीं हैं ।

एक दौर में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के बहुत से देशों और भारत की नैतिकताएं और मान्यताएं भी लगभग समान थीं। वहां पर कम्युनिस्ट व्यवस्था थी, जबकि भारत में नेहरुवियन सोशलिज्म का प्रभाव था। दुनिया के बहुत से नामवर विश्वविद्यालयों में हिंदी चेयर इंडियन काउंसिल आॅफ कल्चरल रिलेशंस (आईसीसीआर) के प्रयासों से ही स्थापित हुई। इनमें साउथ कोरिया के बुसान और सियोल विश्वविद्यालयों के अलावा पेइचिंग, त्रिनिडाड, इटली, बेल्जियम, स्पेन, तुर्की, रूस वगैरह के विश्वविद्यालय शामिल हैं। उधर, साउथ कोरिया में हिंदी को सीखने की वजह विशुद्ध बिजनेस संबंधी है। दरअसल वहां की अनेक बहुराष्ट्रीय  कंपनियां भारत में तगड़ा निवेश कर चुकी हैं। इनमें हुंदई, सैमसंग, एलजी शामिल हैं। ये अपने उन्हीं पेशेवरों को भारत भेजती हैं, जिन्हें हिंदी का कुछ ज्ञान तो हो। मतलब यह है कि बाजार का फीडबैक लेने के लिए साउथ कोरिया की कंपनियों को भारत के मुलाजिमों पर ही भरोसा न करना पड़े।

राही मासूम रजा का आधा गांव और श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास राग दरबारी का उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद किया। उन्होंने भीष्म साहनी की कहानियों का भी अनुवाद किया। इन तीनों दिग्गजों के कामों का अनुवाद करके गिलियन ने अपने लिए हिंदी जगत में एक खास जगह बना ली है। श्रीलाल शुक्ल और रजा के उपन्यासों में आंचलिकता का खासा पुट है। आचंलिक मुहावरे हैं। उन्होंने आंचलिक शब्दों और मुहावरों को जिस बखूबी के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया, उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। तो हिंदी के विश्व भाषा के रूप में स्थापित होने में इसी प्रकार की कई ठोस वजहें रहीं। और अब तो हिंदी के विकास-विस्तार उसी तरह से हो रहा है, जैसे किसी स्वच्छ नदी का प्रवाह होता है। इस तरह देखें तो हिंदी हर पैमाने पर एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है और अंग्रेजी तथा चायनीज के बाद विश्व की तीसरी बड़ी भाषा बन चुकी है। यानि कि विश्व की प्रमुख भाषाओं फ्रेंच, जर्मन और स्पेनिश से कहीं ऊपर पहुंच गई है हिंदी।

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