23 Apr 2024, 11:44:56 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-हर्षवर्धन पांडे
लेखक समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


कश्मीर में हिंसा का तांडव थमने का नाम नही ले रहा है। पिछले  करीब डेढ़ महीने से जन्नत  अशांत है। राज्य में आम नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों के बीच लगातार झड़पों का सिलसिला जारी है, जिस कारण  सरकार को डेढ़ दशक बाद कश्मीर की सड़कों पर बीएसएफ को उतारने पर मजबूर होना पड़ा है। इस बीच विपक्षी दलों के एक प्रतिनिधिमंडल ने कश्मीर के हालात पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत करने के साथ ही सर्वदलीय बैठक का जो दौर शुरू किया। उसका अब तक का नतीजा भी सिफर ही रहा है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कश्मीर में शांति बहाली के लिए जहां घाटी का रुख कर चुके हैं, वहीं मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की पीएम मोदी के साथ बैठक के बाद भी कश्मीर के हालत संभल नहीं रहे हैं।

आलम यह है कि अलगाववादियों को महबूबा की कड़ी चेतावनी के बाद भी जन्नत में पत्थरबाजी का दौर थमा नहीं है।  बीते सोमवार को कश्मीर घाटी में कर्फ्यू हटाए जाने के ठीक दो दिन बाद हिंसा के तांडव का खुला खेल फिर से शुरू हो गया है। सुरक्षा बलों के साथ हुई हिंसक झड़प में एक किशोर की मौत हो गई तथा 100 से अधिक व्यक्ति घायल हो गए। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए सुरक्षा बलों ने पहले आंसू गैस के गोले छोड़े और पैलेट गन का इस्तेमाल किया। जब भीड़ नहीं हटी तो उन्हें गोली चलानी पड़ी। बुधवार को एक किशोर की मौत के साथ ही घाटी में 9 जुलाई से शुरू हुए इस संघर्ष में मरने वालों की संख्या अब 72 हो गई है, जिनमें दो पुलिसकर्मी भी शामिल हैं, वहीं  हिंसक संघर्ष में अब तक 11,000 से अधिक लोग घायल हुए हैं जिसमें 7,000 नागरिक और सुरक्षा बलों के 4,000 जवान शामिल हैं।
दरअसल, कश्मीर की सियासत इस समूचे दौर में उस मुहाने पर जा टिकी है जहां भारत सरकार और घाटी  के बीच संवाद पूरी तरह टूटा हुआ है। अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा किसी भी नेता ने कश्मीर के मसले को हल करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की, लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद भी उस लीक का पता लग पाना मुश्किल दिख रहा है, क्योंकि वह  अलगाववादियों से बात न करने का ऐलान पहले ही कर चुकी है। असल में कश्मीर में  आए दिन सुरक्षा बलों और आम नागरिकों के बीच अक्सर झड़पें होती रहती हैं। हिजबुल मुजाहिद्दीन के चरमपंथी बुरहान वानी की मौत के बाद जो कश्मीर में हालात बन रहे हैं, उससे लगता है कि लोग आक्रोशित हैं। 90 के दशक को याद करें तो उस दौर में मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी को अगवा किया गया था, तब इतनी बड़ी संख्या में लोग बाहर आए थे, जिसके बाद  1993 में हजरत बल में चरमपंथी छिपे हुए थे, जिसे सेना ने घेरे में लिया तो घाटी सुलग गई। इसके बाद 1995 में एक सूफी संत की दरगाह में एक पाकिस्तानी चरमपंथी के छिपने के बाद फिर से कश्मीर जलने लगा। 2008 में अमरनाथ की जमीन के विवाद के वक़्त भी काफी बवाल हुआ था और कई महीनों तक प्रदर्शन हुए जिसकी गूंज दिल्ली तक पहुंची। 2010 में एक कथित एनकाउंटर के बाद भी बवाल हुआ, जिसमें करीब 130 लोग मारे गए और 2013 में अफजल गुरु की फांसी के बाद भी कश्मीर में बवाल हुआ, जो कुछ समय बाद थम-सा गया, लेकिन ताजा मामला आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीरी युवाओं के फूटे आक्रोश का है, जिसे कश्मीर के युवा किसी आइकन से कम नहीं समझते थे। बुरहान वानी का परिवार जमात विचारधारा से काफी प्रभावित था। बुरहान वानी पाकिस्तानी आतंकी संगठन  हिजबुल मुजाहिदीन का सदस्य था। उस पर एक तरफ जमात का मजहबी असर था तो दूसरी तरफ वह 21वीं सदी का वह युवा था, जो सोशल मीडिया का खुलकर इस्तेमाल करने वालों में से एक था। इन दोनों स्थितियों ने बुरहान को हिजबुल का कमांडर बनने में मदद की। वानी ने सोशल मीडिया का सहारा लेकर मजहब से प्रेरित अपनी राजनीतिक विचारधारा को बढ़ावा दिया। इसी के आसरे  वह युवाओं के बीच खासा लोकप्रिय चेहरा बन  गया। जब उसे सेना ने मार गिराया तभी से कश्मीर में हिंसा शुरू हो गई। यह हिंसा अभी भी जारी है। 1996 के बाद यहां पहली बार ऐसा हुआ कि किसी चरमपंथी की मौत के बाद इतनी बड़ी संख्या में लोग कश्मीर की सड़कों पर बाहर आए हैं। इस विरोध प्रदर्शन से कश्मीर के पर्यटन कारोबार को जहां करोड़ों का नुकसान हो गया है वहीं बीते 53 दिनों से लोगों की रोजी रोटी सीधे तौर पर प्रभावित हो रही है, जिसकी सुध लेने की जहमत कोई राजनेता इस दौर में लेने को तैयार नहीं है।  इस दौर में जहां दुकानों में ताले पड़े हैं वहीं निजी और सरकारी शिक्षण संस्थान  और कार्यालयों में पसरा सन्नाटा इस बात की गवाही दे रहा है कि कश्मीर में हालात दिन पर दिन कैसे खराब होते जा रहे हैं और सरकार कुछ कर भी नहीं पा रही है।
बीते दिनों कश्मीर के हालात पर महबूबा और मोदी की मुलाकात दिल्ली में हुई थी, जिसमे महबूबा ने पीएम मोदी  की तारीफों के कसीदे पढ़ते हुए कहा पीएम मोदी ने कश्मीर के लिए  सभी तरह के जरूरी कदम उठाए हैं। उन्होंने याद दिलाया कि पीएम मोदी जब लाहौर से लौटे तो देश को पठानकोट आतंकी हमला झेलना पड़ा। महबूबा ने कहा कि पीडीपी-बीजेपी गठबंधन की आधारशिला पीएम अटल बिहारी वाजेपयी की कश्मीर नीति थी। वाजपेयी की कश्मीर नीति को वहीं से आगे बढ़ाना होगा जहां पर इसे रोक दिया गया, वहीं कांग्रेस ने  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सुझाव दिया है कि उन्हें वार्ता की पहल करनी चाहिए। कांग्रेस की यह टिप्पणी तब आई जब पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने कश्मीर में प्रतिनिधिमंडल भेजने की वकालत की। जानकारों के मुताबिक कश्मीर में हिंसा बढ़ने की एक वजह यह रही कि दक्षिणी कश्मीर के युवा 2010 में हुई हिंसा के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस से काफी नाराज थे। उन्होंने उमर अब्दुल्ला की सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए 2014 के विधानसभा चुनाव में पीडीपी को वोट दिया, लेकिन पीडीपी और भाजपा के गठबंधन से इन युवाओं ने अपने आपको ठगा हुआ महसूस किया। इसलिए ये युवा सरकार से खुलकर लड़ने लगे हैं जिसकी मिसाल कश्मीर में दिखाई दे रही है। बुरहान की मौत ने आग में घी डालने  का काम किया और जन्नत को सुलगाने का काम अलगाववादी संगठनों ने किया। उन्होंने कश्मीर  के मुसलमानों को आक्रोशित कर सड़कों पर उतारा। धीरे-धीरे घाटी  सुलगने लगी। मौजूदा दौर में भारत पाक की बातचीत लंबे समय से बंद है।

देश के गृह मंत्री राजनाथ सिंह कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत में यकीन रखने वाले सभी लोगों को आमंत्रित कर वाजपेयी वाली लीक पर कश्मीर में चलना चाहते हैं। शायद यही वजह है एक दो दिन में कश्मीर में 26 नेताओं के प्रतिनिधिमंडल को भेजने पर गहनता से मंथन चल रहा है। खुद राजनाथ ने अब कश्मीर की कमान अपने हाथ में ली है और वह खुद कश्मीर के नेताओं के साथ बातचीत करेंगे, जिसमे अलगाववादी नेताओ से भी बातचीत का नया चैनल खोलने पर विचार चल रहा है। यानी कश्मीर जाने वाले प्रतिनिधि दल के लोगों को कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से मिलने की छूट होगी। अगर ऐसा होता है तो कुछ रास्ता निकलेगा इस बात की उम्मीद तो बन ही रही है। तो मोदी सरकार के अब कश्मीर पर नरम रुख का इंतजार हर किसी को है। देखना होगा कि कश्मीर में ऊंट किस करवट बैठता है?

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