-वीना नागपाल
निजी स्कूल अपने यहां अलग-अलग शीर्षकों से फीस के साथ राशि बटोरते हैं। उनकी सूची में शामिल शीर्षकों पर नजर डालें तो आश्चर्य होता है कि उन्होंने किस-किस नाम के अन्तर्गत पेरेन्टस से राशि वसूलने का तरीका ढूंढ़ निकाला है, जबकि उन शीर्षकों की राशि शायद ही व्यय की जाती हो या उसके अन्तर्गत बताई गई सुविधाएं बच्चों को मिल भी पाती हों? यह अलग बात है कि यह राशि सीधे-सीधे स्कूल संचालकों की जेबें अवश्य भर देती हैं।
इसी तरह हेल्थ चेकअप के नाम पर स्कूल संचालक फीस के साथ यह राशि लेते हैं पर होता यह है कि शायद ही कभी किसी विशेषज्ञ डाक्टर को बुला कर नियमित रूप से बच्चों के स्वास्थ्य का पूरा-पूरा निरीक्षण करवाया जाता हो। कभी-कभार सुनाई पड़ता है कि दांत रोग विशेषज्ञों की एक टीम फलां स्कूल में गई और उसने पाया कि अधिकांश बच्चों के दांत खराब थे और उनमें सड़न थी। डाक्टर की टीम ने बच्चों को दांतों के रोगों से बचने की समझाईश दी और किस्सा खत्म हो गया। कभी-कभी तो ऐसे विशेषज्ञ डाक्टर स्वयं ही टीम बना कर अपनी सामाजिक सेवा की भावना के अंतर्गत स्कूलों में चले जाते हैं। स्कूल संचालकों की इसमें कोई योगदान नहीं होता।
होना तो यह चाहिए कि स्कूलों में बाल रोग विशेषज्ञों की टीम बच्चों का पूरा हेल्थ चेकअप करें। उनके दांत-कान-आंख से लेकर सामान्य स्वास्थ्य का पूरा-पूरा निरीक्षण कर प्रत्येक बच्चे की स्वास्थ्य की पूरा फाइल बनाई जाए। विटामिन्स आयरन और कैलश्यिम की कमी के कारण कई बच्चे कमजोर होते हैं और स्कूल की गतिविधियों और खेलों में सक्रियता से भाग नहीं ले पाते। कई बार बच्चे अपनी शारीरिक निर्बलता के कारण अपने अध्ययन में भी रुचि नहीं दिखा पाते और पिछड़ जाते हैं ऐसे बच्चों को दंड देने के स्थान पर उनकी शारीरिक अवस्था पर ध्यान देना अधिक आवश्यक है। हेल्थ चेकअप के नाम पर राशि बटोरने वाले स्कूल संचालक कभी इस ओर ध्यान ही नहीं देते कि बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी भी उनकी है और यदि बच्चा आलसी या निष्क्रिय है तो बाल रोग विशेषज्ञ से उसकी पूरी जांच करवा कर डॉक्टर की पेरेन्टस के साथ भी मीटिंग करवाई जाए और उन्हें पूरी जानकारी दी जाए कि वह बच्चे को घर पर भी कैसा आहर दें। होना तो यह भी चाहिए कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का भी पूरा चेकअप हो और वह बहुत तनाव व दबाव से भरा दिखता है तो उसकी मनोरोग विशेषज्ञ से समय-समय पर काउंसिलिंग करवाई जाए। आजकल ऐसे समाचार आ रहे हैं कि अध्ययन के दबाव में तथा परीक्षा परिणामों के अंकों के प्रतिशत को लेकर 10वीं - 11वीं के बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं। यह बहुत ही चिंतनीय विषय है। यदि हेल्थ चेकअप की बात ही करना है तो इसमें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को अवश्य ही शामिल करना होगा। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
निजी स्कूल चंूकि भारी-भरकम फीस वसूलते हैं तो उन्हें बच्चों के सर्वांगीण विकास का उत्तरदायित्व भी उठाना होगा। पेरेन्टस यदि यह फीस देकर अपने बच्चों को स्कूल संचालकों के हाथ में सौंपते हैं तो उनकी यह अपेक्षा भी न्यायसंगत है कि स्कूल प्रबंधन अब बच्चे को शारीरिक व मानसिक रूप से भी सक्षम बनाकर एक सुदृढ़ व्यक्तित्व वाले व्यक्ति या मानव का आकार दें। जब पश्चिम की इतना बात की जाती है तो यह ध्यान में रखना ही होगा कि वहां के स्कूलों में बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जाती है, तब हमारे यहां इतनी उपेक्षा क्यों की जातीं है? और वह भी तब जब निजी स्कूल फीस के नाम पर कितनी बड़ी धन राशि ले रहे हैं।
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