-वीना नागपाल
ऐसे कई परिवार होंगे जिन्होंने अपने बच्चों के खिल-खिलाकर हंसने की आवाज शायद ही कभी सुनी हो। सत्य तो यह है कि बच्चों ने हंसना ही छोड़ दिया है। यह भी तो एक कटु सत्य है कि जब बच्चे हंसेंगे नहीं तो गुमसुम रहेंगे तथा अपने आप में ही डूबे-डूबे और खोए रहेंगे जब यह स्थिति बनी रहेगी तो वह अपने ही विचारों की उठती उथल-पुथल के कारण मानसिक तनाव झेलेंगे। बच्चों को ऐसी हालत में देखना किसी भी तरह सुखद तो नहीं कहा जा सकता।
जब वयस्कों ने तनाव झेलना शुरू कर दिया है तो परिवार के बच्चे इससे अछूते कैसे रह सकते हैं। आजकल पैरेंट्स संतान के जन्म लेते ही तनाव में आ जाते हैं। वह दिन-रात इस चिंता में घुलने लगते हैं कि पता नहीं बच्चे का भविष्य क्या होगा? वह पढ़ाई में कैसा रहेगा? स्कूल में कैसा परफॉर्म करेगा। इसका मस्तिष्क किन विद्युत तरंगों को आत्मसात करेगा जिनके कारण वह जीनियस कहलाएगा। जब माता-पिता अपने बच्चों के साथ उनकी पढ़ाई अथवा उनके परीक्षा परिणामों को लेकर ही लगातार बात करते रहेंगे कि उसे तो केवल परीक्षा परिणाम में अच्छे प्रतिशत लाना है और इसके अतिरिक्त न तो किसी बात के विषय में सोचना है और न ही ध्यान देना है। यहां तक कि उन्हें दूसरे बच्चों के साथ खेलने तक नहीं दिया जाता कि कहीं उनका ध्यान कहीं और केंद्रित न हो जाए।
हैरानी तो इस बात पर भी होती है कि एक ही बिल्डिंग के फ्लैट्स में रहने वाले बच्चों की हंसी और खिलखिलाने की आवाज भी सुनाई नहीं देती है। फ्लैट्स के बंद दरवाजों के पीछे रहते हुए बच्चे अपने हमउम्र दोस्तों व सखाओं से मिल नहीं पाते हैं तब हंसेंगे कब? अपने माता-पिता के साथ तो वह उस स्तर की बातें कर हंस नहीं सकते जो उनकी इस मासूम उम्र में उन्हें हंसने के योग्य लगती हैं। इससे भी बढ़कर एक और बात भी आजकल देखने में आ रही है कि पैरेंट्स भी अपने से या उनके स्वयं कहीं जाने से बच्चों की पढ़ाई में डिस्टरबेंस अर्थात विघ्न पड़ जाए या उनका पढ़ाई का क्रम न टूट जाए। जब पैरेंट्स स्वयं सामाजिकता तथा सोशलाइजिंग में विश्वास नहीं रखते तो वह बच्चों को कहां अपने हमजोलियों के साथ घुलने-मिलने की छूट देंगे? उनकी मानसिक तनाव की छूत बच्चों तक पहुंच गई है और उनके चेहरों पर उनके मानसिक तनाव की इबारत साफ-साफ लिखी हुई देखी जा सकती है।
यदि यह समस्या विकट होती गई (वैसे अब भी कम विकट नहीं है।) तो हंसना केवल एक यौगिक क्रिया रह जाएगी जिसे पूरी कृत्रिमता के साथ योग करते समय एक क्रिया तक करना सीमित रह जाएगा। जब तक यह क्रिया जारी रहेगी लोग हंसेंगे तो नहीं पर हंसने की आवाजें जरूर निकालेंगे। शायद हम वर्तमान पीढ़ी को यहीं तक सीमित रहने की बंदिश में बांध रहे हैं। यदि ऐसी नौबत तक नहीं पहुंचना है और बच्चों की स्वभाविक और प्राकृतिक हंसी को लौटाना है तो कोशिश करें कि वह कुछ समय अपने फ्लैट या घर से निकलकर अपने हम उम्र साथियों के बीच जाएं। लड़ें-झगड़ें और एक-दूसरे के पीछे हंसते हुए भागें-दौडें। भले ही उनके नंबर कुछ काम आएं पर उनके चेहरे से चिंता की लकीरें मिट जाएं और मानसिक तनाव कम हो जाए।