29 Mar 2024, 12:59:26 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

कितना लंबा सफर रहा है जिसे लड़कियों ने तय किया है और तब वह इस मुकाम पर पहुंची हैं जहां उन्हें बार-बार यही सुनना पड़ता था- चूल्हा चौका ही तो करना है। वह यदि शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा रखती थीं तो उन्हें घर की महिलाएं जिसमें मां भी शामिल होती थी बार-बार उसे कुछ भी प्राप्त करने और अर्जित करने पर रोक लगाती कहती थीं कि उनका आज का समय और भविष्य का पूरा समय रसोई घर में कटना है और भोजन बनाने में ही उनका जीवन कटने वाला है।

लड़कियां भी दबी-घुटी देखती रहती हैं कि परिवार का बेटा और उनका भाई तो नियम से स्कूल जा रहा है और फिर वह एक दिन महाविद्यालय भी चला जाता है पर, उनकी पढ़ाई तो आठवीं या ज्यादा से ज्यादा दसवीं (उन दिनों दसवीं ही होती थी) करवाकर छुड़वा दी जाती थी। घर की बड़ी बुजुर्ग महिलाएं उसे बार-बार टोकते हुए कहती रहती कि-तुमने कौन सी नौकरी करना है, चूल्हा-चौका ही तो करना है। ‘‘यह भी बहुत अच्छा माना जाता था कि उसे न केवल अच्छा खाना बनाना आ जाए बल्कि जितना अधिक संभव हो वह रसोई में ही समय बिताए।

आज युवतियों की यह यात्रा रसोई से बाहर निकलकर ऐसे लक्ष्य प्राप्त कर रही है जो उसे और उसके परिवार के साथ-साथ समाज में भी महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। आईआईएम और आईआईटी तथा उच्च शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में अपना वर्चस्व स्थापित कर लड़कियों ने दिखा दिया है कि वह अपने लिए सर्वश्रेष्ठ पाने की क्षमता रखती हंै। जब भी परीक्षा परिणाम आते हैं तब यह प्राय: समाचार पत्रों के समाचार का मुख्य शीर्षक बनता है-इस बार भी लड़कियों ने बाजी मारी। ‘‘दरअसल यह बाजी मारना उस तथ्य को स्पष्ट करता है जिसमेंं दबी-घुटी और अवसरों को प्राप्त न कर पाने के कारण वंचित रही लड़कियां आज अवसर मिलने पर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिए आतुर हैं। उनकी योग्यता तो पहले भी कम नहीं थी पर, जब उन्हें मौके ही नहीं दिए गए तो उनके पास इसके अतिरिक्त विकल्प ही क्या बचता था कि वह चौके-चूल्हे को ही अपना कार्यक्षेत्र समझें पर, यह भी तो सत्य सर्वविदित है कि वह चौके-चूल्हे तक सीमित रहीं तब उन्होंने इस में भी कमाल की दक्षता दिखाई। वहां भी उन्होंने अचार, पापड़, बड़ियों और मठरी व शकरपारों व्यंजनों की ऐसी-ऐसी वैरायटी निकालीं कि उनके हाथों के जायकों ने तहलका बरपा दिया। यहां तक कि साधारण से दाल-चावल में उनके हाथों का रस क्या रमता कि कहीं भी जाने पर उसका स्वाद नहीं भूलता था।

आज यदि युवतियां सभी क्षेत्रों में अपना स्थान बना रही हैं तो यह भी उनका अन्तनिर्हित कमाल ही है कि उन्होंने अवसर मिलते ही यहां भी स्वयं को सिद्ध कर दिया। इस बात की ओर विशेष सराहना की जाना चाहिए कि आज पेरेंट्स भी अपनी बेटियों के गुणों, क्षमताओं और योग्यताओं को पूरा-पूरा निखरने के अवसर दे रहे हैं। वह किसी भी वर्ग के क्यों न हों और इससे पहले चाहे जागरूक न भी रहे हों। परंतु आज जब उन्हें अपनी बेटी में किसी भी योग्यता की चिंगारी दिखती है तो वह उसे ज्वाला बनाने की कोशिश में जुट जाते हैं। घर की महिलाओं ने तो अब कब से यह कहना लगभग बंद कर दिया है-पढ़कर (खेलों में भी भाग लेकर) क्या करेंगी? आखिर चौका-चूल्हा ही तो फूंकना है। इसी के साथ साक्षी व सिंधु को पदक लेकर लौटकर आने की बधाई। अगले ओलिंपिक में कई साक्षी व सिंधु चमकेंगी।

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