20 Apr 2024, 15:40:26 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक


कश्मीर समस्या के हल के लिए राष्ट्रपति भवन के दरवाजे पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर फारूक ने दस्तक देकर साफ कर दिया है कि उनकी तीन पीढ़ियों के साए में इस राज्य के चलने के बावजूद समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। उनके दादा स्वर्गीय शेख मुहम्मद अब्दुल्ला, पिता डॉ. फारूक अब्दुल्ला और स्वयं उमर के राज्य की हुकूमत का सरपरस्त रहते असली मुद्दों में कोई फर्क नहीं पड़ पाया। राष्ट्रपति  प्रणब मुखर्जी इस देश के सर्वोच्च संवैधानिक शासक हैं और किसी गूढ़ समस्या के हल के लिए उनसे गुहार लगाना लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूरी तरह जायज भी है, मगर असली सवाल यह है कि राज्य के जिन विपक्षी दलों ने उमर के नेतृत्व में मुखर्जी से हस्तक्षेप करने की अपील की है उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि असल मसला क्या है और उसके पेंचोखम क्या-क्या हैं।

उमर साहब भूल गए हों तो उन्हें याद दिला देते हैं कि वाजपेयी सरकार के दौरान जब वह केंद्र में विदेश राज्यमंत्री थे और उनके पिता फारूक साहब रियासत की बागडोर संभाले हुए थे तो उन्होंने तजवीज पेश की थी कि कश्मीर का जो इलाका पाकिस्तान के कब्जे में है वह उसके पास रहे और जो हमारे शासन में है वह हमारे पास रहे। यह तजवीज पूरी तरह भारतीय संविधान के विरुद्ध थी और भारत की भौगोलिक अखंडता के प्रति प्रत्येक चुने हुए प्रतिनिधि द्वारा ली जाने वाली शपथ का खंडन थी मगर तब केंद्र में उमर साहब की नेशनल कान्फ्रेंस और भाजपा का गठबंधन था। सत्तारूढ़ भाजपा ने तब फारूक साहब के इस कथन पर इस तरह तवज्जो नहीं दी थी जैसे उनके कानों में यह आवाज पहुंची ही न हो।

दरअसल यह कश्मीर समस्या को सुलझाने की ललक में वाजपेयी सरकार की सांझा गठबंधन चलाने की उलझन की मजबूरी थी, मगर अब भाजपा की मोदी सरकार की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर नेशनल कान्फ्रेंस के नेताओं की तजवीज पर तवज्जो देकर भारतीय संविधान के परखचे उड़ते देखने पर मजबूर हो। उमर साहब जब कश्मीर समस्या को राजनीतिक समस्या मान रहे हैं तो कृपया यह जरूर बताएं कि कश्मीर घाटी के जिस हिस्से को 1947 में पाकिस्तान की फौजों ने कबायलियों को आगे करके तब तक भारत में विलीनीकरण के कागजात पर दस्तखत न करने वाले महाराजा हरिसिंह की रियासत के जिस हिस्से पर जुल्मोगारत का बाजार गर्म करते हुए इंसानियत का कत्ल करके हजारों कश्मीरियों को बेघर-बार करके उनकी हत्या की थी क्या वह उसी जम्मू-कश्मीर का हिस्सा नहीं था जिसे महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को भारतीय संघ का हिस्सा बनाया था और क्या इस मसौदे पर उनके दादा शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के भी दस्तखत बाद में पं. जवाहरलाल नेहरू ने नहीं लिए ेथे? यह पुख्ता इतिहास है कि तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन की सदारत में जिस जम्मू-कश्मीर रियासत का विलय भारतीय संघ में किया गया था और महाराजा हरिसिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए यह इच्छा व्यक्त भी की थी कि शेख अब्दुल्ला को ही उनके सूबे का प्रधानमंत्री बनाया जाए तो भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने उस विलय पत्र पर शेख अब्दुल्ला के दस्तखत भी कराए थे, क्योंकि शेख साहब तब पूरी रियासत की अवाम के सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे, मगर बाद का इतिहास दोहराने की जरूरत नहीं है कि किस प्रकार पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में पाक हुक्मरानों ने फिरंगी साजिशों को परवान चढ़ाया और पं. नेहरू ने किस प्रकार ऐतिहासिक गलती करते हुए कश्मीर के मुद्दे को राष्ट्र संघ में उठाया लेकिन इससे स्थितियां कैसे बदल सकती थीं, क्योंकि महाराजा हरिसिंह ने तो पूरी जम्मू-कश्मीर रियासत का विलय भारतीय संघ में किया था।

उमर साहब में अगर राजनीतिक योग्यता है तो वह सबसे पहले यह बताएं कि ऐसा कौन-सा राजनीतिक हल है जिसे वे अपनी हुकूमत के रहते सिरे नहीं चढ़ा पाए और अब उसका फार्मूला उनके पास है। राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को भारत की कोई भी हुकूमत बर्दाश्त नहीं कर सकती और पाकिस्तान की जुबान बोलने वालों को किसी भी तौर पर तरजीह नहीं दे सकती। कश्मीर का मसला अगर कोई है तो केवल इतना कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लोगों को भी वे हुकूक हासिल हों जो श्रीनगर से चलने वाली सरकार के कश्मीरियों को हासिल हैं। उमर साहब अगर यह आंदोलन जम्मू-कश्मीर के सभी विपक्षी नेताओं के साथ मिल कर चलाएं तो राजनीतिक हल निकल सकता है और घाटी में पाकिस्तान की शह पर काम करने वाले एजेंटों को खुद-ब-खुद सबक मिल सकता है। कौन कह सकता है कि कश्मीर में मानवीय अधिकारों के खिलाफ कोई काम हुआ है।

क्या उमर फारूक इस बात का जवाब देंगे कि उनकी हुकूमत के दौरान फौजियों और पुलिस पर पत्थर फेंकने वाले कौन थे? हकीकत तो यह है कि यहां के राजनीतिक दलों ने पत्थर फेंकने को घरेलू उद्योग में बदल दिया है। इस राज्य की युवा पीढ़ी के हाथ में पत्थर देकर ये लोग सोच रहे हैं कि वे कश्मीर को कोसावो बना सकते हैं, मगर कश्मीर का आम आदमी अच्छी तरह जानता है कि पाकिस्तान के हिमायती उन्हें दोजख का रास्ता बता रहे हैं, क्योंकि इस राज्य की संस्कृति में मजहब का फितूर इन्हीं लोगों ने भरने की पुरजोर कोशिश की है वरना क्या मजाल कि किसी हिंदू तीर्थ यात्री को कभी घाटी में किसी तरह की तकलीफ वहां के मुसलमान नागरिकों को होने दी हो मगर नामुराद पाकिस्तान लगातार कोशिश करता रहा और घाटी में बैठे कुछ एजेंट उसके इशारे पर नाचते रहें और कत्लोगारत करने वाले दहशतगर्दों को शहीद तक बताते रहें।

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