-वीना नागपाल
साक्षी ने भारत को कांस्य पदक दिलवाया। साक्षी और उसके परिवार तथा विशेषकर उसके प्रशिक्षक (कोच) को बहुत शुभकामनाएं व बधाइयां। इस पदक को प्राप्त करने के बाद साक्षी के जीवन के संघर्ष तथा उसके परिवार के सहयोग व उसके प्रशिक्षक के परिश्रम के कई अध्याय खोले जाएंगे पर, हम तो इतना भर जानते हैं कि बहुत कठिन और विपरीत परिस्थितियों में साक्षी ने न केवल अपने बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए पदक जीतकर उसका गौरव बढ़ाया है। एक लेखक ने अपने लेख में ठीक ही लिखा है किसी राष्ट्र का गौरव उसकी सैन्य शक्ति, वैज्ञानिक तथा नाभकीय परीक्षणों से उतना नहीं बढ़ता जितना कि उस राष्ट्र के खिलाड़ियों द्वारा विभिन्न खेलों में जीते जाने वाले पदकों से बढ़ता है।
पदक केवल सोने, चांदी व कांस्य धातु के बने नहीं होते बल्कि यह किसी राष्ट्र के खिलाड़ी द्वारा जीते जाने पर उस राष्ट्र के चरित्र व सामाजिक स्थिति का परिचायक भी होते हैं। साक्षी के पदक जीतने पर विश्वभर में यह संदेश गया कि भारत में अब लड़कियों को खेलों में भाग लेने के न केवल अवसर दिए जाते हैं बल्कि उन्हें इसके लिए उत्साहित भी किया जाता है, लड़कियों की स्थिति को लेकर विश्व में जो भारत के प्रति धारणा बन गई है साक्षी ने उस धारणा के मिथ को तोड़ा है। दूसरे न केवल भारत की राजनीतिक छवि इससे स्पष्ट हुई कि भारत का प्रशासन अपने खिलाड़ियों में कितनी दिलचस्पी लेता है बल्कि भारतीय समाज की सोच व मानसिकता के प्रति एक स्पष्ट नजरिया प्रस्तुत हुआ है जिससे यह पता चला है कि भारत की नई पीढ़ी की लड़कियां को खेलों में भाग लेने की कितनी छूट है। समाज उनका विरोध नहीं कर रहा बल्कि उन्हें उत्साहित भी करता है।
पिछलों दिनों भारत के खिलाड़ियों के पदक न जीतने पर लेखिका शोभा डे ने खिलाड़ियों का बहुत मजाक उड़ाया था और यहां तक कह दिया था कि वह तो रियों में ‘सेल्फी’ लेने गए हुए हैं। इस तरह का उपहास उचित नहीं था। ओलिंपिक में भाग लेने की कुछ कसौटियां व शर्तें होती हैं। उन्हें भारतीय महिला व पुरुष खिलाड़ियों ने पूरा किया और तभी वे रियो पहुंचे। इनमें काफी संख्या में लड़कियां थीं। हम जाने-पहचाने नामों को छोड़ भी दें तो भी कई लड़कियों ने विभिन्न खेलों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। इसके पीछे उनका लंबा प्रशिक्षण व किसी हद तक थका देने वाला परिश्रम शामिल था। आखिर वह खेलों के मैदान पर नियमित रूप में पहुंचती रहीं और कठिन श्रम भी करती रहीं। इसके लिए उन्होंने बहुत समय दिया होगा। किसी हद तक अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद कहीं से भी पौष्टिक आहार लेने की भी व्यवस्था की होगी। इन सबसे भी बढ़कर उस संकीर्ण व परंपरावादी सोच को भी चुनौती दी होगी जो लड़कियों को इस तरह खेलों के मैदान में उतरने के ही पूर्णत: विरुद्ध जाती है।
जो खिलाड़ी लड़कियां ओलिंपिक में गई हैं उन्हें ‘साक्षी’ के नाम का ही प्रतिनिधि मानकर हम बधाई देते हैं। यह माना कि अन्य देशों की तुलना में हमारी लड़कियां बेहतर नहीं कर पाईं पर, उनके जज्बे व परिश्रम में कोई कमी नहीं थी। वह खेलों के प्रति अपनी सहभागिता और रुचि दिखाने के कारण अन्य कई लड़कियों की प्रेरणा बनेंगीं। उन्होंने संघर्ष का एक लंबा समय जिया है और इसें किसी हद तक सार्थक व सफल भी बनाया है। इन सब खिलाड़ी लड़कियों को व उनके परिवारों को बधाई। खेल भावना को उन्होंंने बनाए रखा, क्या इतना ही काफी नहीं है?