-अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक
रियो ओलिंपिक में भारत को अब तक निराशा ही हाथ लगी है। न सानिया मिर्जा कुछ कर पाईं, न सायना नेहवाल। पुरुष हाकी में भारत बढ़त के बाद बेल्जियम से हारकर टूर्नामेंट में पदक की रेस से बाहर हो गया। एक-एक करके कई खेलों में भारत की चुनौती खत्म होती जा रही है। स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर उम्मीद तो थी कि कोई न कोई खिलाड़ी पदक जीतकर देश को तोहफा देगा लेकिन ऐसा हो नहीं सका। पूरे देश की निगाहें जिम्नास्ट दीपा करमाकर पर लगी हुई थीं। यद्यपि दीपा महज 0.15 अंकों के अंतर से कांस्य पदक से चूक गर्इं, लेकिन उन्होंने जिम्नास्टिक के फाइनल में पहुंच कर इतिहास रच दिया है।
यह कारनामा करने वाली वह पहली महिला एथलीट बन गई हैं। दीपा जहां पहुंची हैं, वहां का सपना देखना भी मुश्किल लगता है। उसने दिखा दिया कि अगर इरादे बुलंद हों, व्यक्तिगत समर्पण हो तो कोई भी राह मुश्किल नहीं है। इसे आप जिद कहें या दृढ़ इच्छाशक्ति, दीपा ने जो मुकाम हासिल कर लिया है उसमें पदक से चूक जाने के बावजूद उसकी चमक फीकी नहीं पड़ी। कभी उन्हें कहा गया था कि वह अपने सपाट तलवों की वजह से अच्छी जिम्नास्ट नहीं बन सकती, लेकिन वह जिम्नास्ट बनीं, अपने हौसले और जुनून से।
भारत में जिम्नास्टिक कोई ज्यादा लोकप्रिय नहीं है। भारत की जिम्नास्टिक में अंतरराष्ट्रीय कामयाबी न के बराबर है। देश में जिम्नास्टिक के मुश्किल से चार-पांच केंद्र हैं, इसके खिलाड़ियोंं के लिए पर्याप्त फंड भी उपलब्ध नहीं है। त्रिपुरा की दीपा गरीबी से जूझती रही हैं। सब जानते हैं कि जब पहली बार उन्होंने किसी जिम्नास्टिक प्रतियोगिता में हिस्सा लिया तब उनके पास जूते भी नहीं थे। प्रतियोगिता के लिए कास्ट्यूम भी उन्होंने किसी से उधार मांगा था जो उसे पूरी तरह फिट भी नहीं आ रहा था। तमाम संघर्षों और आर्थिक तंगी का सामना करने के बाद वह लगातार आगे बढ़ती रहीं।
दीपा ने 2014 के कामनवैल्थ गेम्स में कांस्य पदक जीता था। छह साल की उम्र से वह जिम्नास्टिक कोच विश्वेश्वर नंदी के मार्गदर्शन में ट्रेनिंग कर रही हैं। वह अब तक राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में कुल 77 पदक जीत चुकी हैं, जिनमें 67 गोल्ड मैडल हैं। जन्म से ही दीपा के पांव सपाट हैं, हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि छलांग के बाद जमीन पर लैंड करते समय संतुलन बनाने में बड़ी बाधा आती है, लेकिन कड़े अभ्यास और दृढ़ निश्चय के बलबूते दीपा ने इस कमी को अपने प्रदर्शन में आड़े नहीं आने दिया।
साल 2010 में भारत के आशीष कुमार ने कामनवैल्थ गेम्स और एशियाई खेलों में जब पदक जीता तो लोगों का ध्यान इस ओर गया कि भारत जिम्नास्टिक में कुछ कर सकता है। तब जाकर जिम्नास्ट के लिए सरकारी मदद बढ़ाई गई। पिछले वर्ष हुई विश्व चैम्पियनशिप में दीपा ने प्रोडूनोवा जिम्नास्ट में अंतिम पांच में जगह बनाई और अंतरराष्ट्रीय जिम्नास्टिक संघ ने उन्हें विश्वस्तरीय जिम्नास्ट की श्रेणी में रखा। दीपा अपने इवेंट के बाद से ही भारत में ट्विटर पर टॉप ट्रेडिंग टापिक बनी हुई हैं। बड़ी हस्तियों से लेकर करोड़ों भारतीय उनके मुरीद हो गए हैं।
बात सच भी है कि जिम्नास्टिक के लिए भारत में मूलभूत सुविधाओं की बेहद कमी है, उस खेल के लिए पूरे भारत का आधी रात को टीवी से चिपके रहना कोई छोटी बात नहीं। प्रश्न पदक का नहीं लेकिन सभी प्रचलित मान्यताओं को तोड़ कर आगे बढ़ना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुद को बेहतर साबित करना अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। पदक से चूकने पर दीपा ने अपनी हार के लिए ट्वीट कर माफी भी मांगी लेकिन देशवासियों ने उसकी हौसला अफजाई ही की है।
आज ओलिम्पिक पदक नहीं मिला तो क्या हुआ, भविष्य में ऐसा संभव हो जाएगा। भारत की इस बेटी से देश के बच्चों को प्रेरणा लेनी चाहिए। केंद्र और त्रिपुरा सरकार को चाहिए कि वे जिम्नास्टिक को प्रोत्साहन दें, बेहतर उपकरण उपलब्ध कराएं। हमारे यहां सारा जोर उन खेलों पर दिया जाता है, जो लोकप्रिय हों।
दरअसल कुछ खेल इतने महंगे हैं कि आम आदमी अपने बच्चों के लिए सोच ही नहीं सकता जबकि देश में प्रतिभाएं बहुत हैं और उनमें असीम सम्भावनाएं छिपी हुई हैं। खेलों में सफलता का शिखर संस्थागत और नियोजित प्रयासों से ही नहीं बल्कि खुद की मेहनत से मिलता है। इसलिए दीपा हार कर भी जीती हुई है। उसकी मेहनत को सलाम।