-वीना नागपाल
वह दोनों आईआईएम में साथ-साथ पढ़ते थे। दोनों युवा थे और अपने अध्ययन में भी श्रेष्ठ थे। युवक इस युवती से दो वर्ष आगे था। पता नहीं कहां एक-दूसरे को देखा होगा और कहां वह मिले होंगे पर, दोनों में निकटता स्थापित हो गई, जो अंतत: इस दृढ़ निश्चय में बदल गई कि दोनों अपना अध्ययन पूरा करके तथा अच्छी प्लेसमेंट पाने के बाद अपने-अपने माता-पिता को बता देंगे कि वे परस्पर विवाह करेेंगे। युवक चेन्नई से दक्षिण भारतीय था और युवती पक्की पंजाबन। सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा उन्होेंने सोथा था। बहुत ही अच्छे प्रतिशत से दोनों आईआईएस से पास आउट हुए। पहले युवक को प्लेसमेंट मिली और बाद में युवती को। यह भी उनका सौभाग्य था कि दोनों को मुंबई के ही प्रतिष्ठित संस्थानों में अच्छे पे-पैकेज के साथ प्लेसमेंट मिली। अब तो यह तय था कि वह दोनों अपने-अपने घर में अपना निश्चय बताएंगे। दोनों ने बताया। प्रारंभ में तो दोनों परिवारों में इफ्स एंड बट्स अर्थात ऐसा हुआ तो क्या परिणाम होंगे, लेकिन दोनों का निश्चय है तो करना पड़ेगा, आदि-आदि बातों पर विचार-विमर्श के बाद यह तय हो गया कि दोनों के विवाह को अनुमति दे दी जाए। कमी भी तो कुछ नहीं थी। दोनों परिवार उच्च मध्यम वर्गीय थे। युवक सांवला पर सलोना और अच्छे कद का था तो युवती गौरी, लंबी और तीखे नाक-नक्श वाली थी। परंतु असली बात तो अब प्रारंभ होती है। वह दक्षिण भारतीय परिवार पक्का दक्षिण ब्राह्मणीय परिवार था। उनके कई पारंपरिक और पक्के रीति रिवाज थे। हीरे के महंगे टॉप्स और नाक में पहने जाने वाले हीरे जड़ित लौंग की भी बात थी। बात कुछ शादी में किए जाने वाले रस्मों-रिवाज के बारे में भी थी। इधर पंजाबी परिवार बिंदास था। उनके इस तरह के पक्के रीति-रिवाजों के बारे में कोई आग्रह नहीं था। उस पंजाबी परिवार के पिता और दादा तो बंटवारे के बाद अब के पाकिस्तान के लाहौर में अपने सब रीति-रिवाज छोड़ आए थे। उनके लिए तो विवाह एक आनंदोत्सव था, जिसमें खूब गाओ-नाचो व ऐश करो की बातें थीं। वह कॉकटेल पार्टी भी देना चाहते थे और उसमें दक्षिण भारतीय परिवार को भी निमंत्रित करना चाहते थे, पर उन्हें शादी के अवसर पर पीना पिलाना मंजूर नहीं था।
दक्षिण भारतीय परिवार का यह भी आग्रह था कि उनका ही ब्राह्मण पंडित पूरे विधि - विधान से विवाह करवाएगा। पंजाबी परिवार ने यह सब मान लिया और अन्तरजातीय विवाह हो गया। एक अन्य अन्तरजातीय विवाह में युवक गुजराती भाई था और युवती ठेठ बंगाली थी। वह कहां मिले और कैसे मिले यह बात जाने दीजिए बस! इतना निश्चित था कि दोनों विवाह करेंगे। यह गुजराती युवक का परिवार पक्का वैष्णव था। उसके परिवार वाले गले में तुलसी की माला धारण करते थे। राई-जीरे के बघार के अतिरिक्त उनका और किसी मसाले से भोजन नहीं बनता था। यह अलग बात है कि उनका बेटा तो अब दिल्ली के माहौल में रम गया था। उसे मसालेदार छोले-भटूरे और पिज्जा हट का पिज्जा खाने या मैकडोनल्ड का बर्गर खाने में कोई आपत्ति नहीं थी। उसे तो अपनी प्रेमिका की इस बात पर भी कोई ऐतराज नहीं था कि वह मछली और भात बहुत शौक से खाती है और उसे खाए बिना उससे रहा नहीं जाता। लड़की का परिवार अड़ गया कि विवाह कोलकाता में ही होगा और बंगाली विधि-विधान से होगा। वर को मुकुट पहनाना होगा और धोती भी पहनाना होगी। गुजराती परिवार ने भी अपने देने-लेने की बात मनवाई जो कि कैश में थी। इस प्रकार सुहागिनों द्वारा शंख बजाकर और उलूक ध्वनि निकालकर यह अन्तरजातीय विवाह भी संपन्न हुआ। दोनों खुश हैं। प्रश्न यह उठता है कि अन्तरजातीय विवाहों पर बहुत जोर दिया जाता है कि इससे जाति प्रथा टूटेगी। रीति-रिवाजों और पंरपराओं व रूढ़ियों की जंजीरें टूट जाएंगी, परंतु ऐसा हो नहीं रहा है। पारंपरिकता की मौजूदगी बहुत आश्चर्य करती है। मध्यम वर्गीय तथा उच्च मध्यमवर्गीय परिवार यदि परिवार के सम्मान को आहत होने की बात अब नहीं मान रहे हैं पर, वह अपनी बिरादरी तथा जाति में स्थापित परंपराओं से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। यदि अन्तरजातीय विवाहों में यह दोष और कभी हट जाएगी तभी इनसे दहेज प्रथा जाति की जड़ता खत्म हो सकती है।
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