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राष्ट्रगान पर सवाल उठाना देशद्रोह

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Aug 12 2016 10:14AM | Updated Date: Aug 12 2016 10:14AM
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-आरके सिन्हा
लेखक राज्यसभा सांसद हैं।


शायद ही संसार के किसी अन्य देश में राष्ट्रगान का उस तरह से अपमान होता हो जैसा हमारे देश में होता आया है। राष्ट्रगान पर रोक लगाने से लेकर इसमें संशोधन करने के प्रयास लगातार चलते रहते हैं। अब ताजा उदाहरण इलाहाबाद से सामने आ रहा है। वहां पर एमए कॉन्वेंवट नमक स्कूल में 12 सालों से राष्ट्र गान पर रोक थी। जब मामले ने तूल पकड़ा तो पुलिस ने स्कूल प्रबंधक जिया उल हक को गिरफ्तार कर लिया। अब उसके स्कूल को बंद करने के आदेश भी दे दिए गए हैं।

कल्पना करें कि इस कथित स्कूल में आधिकारिक तौर पर राष्ट्रगान पर रोक लगी हुई थी। क्या इस तरह का आपको उदाहरण किसी अन्य देश में मिलेगा? कतई नहीं। स्कूल में राष्ट्रगान नहीं होने देने के पीछे प्रबंधक जिया उल हक का तर्क था कि राष्ट्रगान में 'भारत भाग्य विधाता' शब्दों का गलत प्रयोग किया गया है। उन्हें इन शब्दों से घोर आपत्ति है। हक के अनुसार भारत में रहने वाले सभी लोगों के भाग्य का विधाता भारत कैसे हो सकता है। यह इस्लाम के विरुद्ध है। जाहिर है, इस तरह के लचर तर्क कोई विक्षिप्त इंसान ही दे सकता है। क्या पता भ्कितने और हक जैसे आस्तीन के सांप भारत के कोने-कोने में पल रहे हैं। 

हमारे यहां पहले भी राष्ट्रगान में संशोधन की मांग उठती रही है। पर क्या राष्ट्रगान में संशोधन हो सकता है? क्या राष्ट्रगान में अधिनायक की जगह मंगल शब्द होना चाहिए? क्या राष्ट्रगान से सिंध शब्द के स्थान पर कोई और शब्द जोड़ा जाए?  पहले भी सिंध शब्द को हटाने की मांग हुई थी, इस आधार पर की  कि चूंकि सिंध अब भारत का भाग नहीं है, इसलिए इसे राष्ट्र गान से हटाना चाहिए।

साल  2005 में संजीव भटनागर ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें सिंध भारतीय प्रदेश न होने के आधार पर जन-गण-मन से निकालने की मांग की थी। इस याचिका को 13 मई 2005 को सुप्रीम कोर्ट के सर्वोच्च न्यायाधीश आर.सी. लाखोटी की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने सिर्फ खारिज ही नहीं किया था, बल्कि संजीव भटनागर की याचिका को छिछली और बचकानी मुकदमेबाजी मानते हुए उन पर दस हजार रुपए का दंड भी लगाया था।

हालांकि मुंबई हाई कोर्ट ने सन् 9 अगस्त 2011 को पुणे के सेवानिवृत्त प्रोफेसर श्रीकांत मालुश्ते की एक याचिका पर अपने निर्णय में कहा था कि हमारे राष्ट्रगीत में सिंध शब्द का प्रयोग संभवत: एक त्रुटि है और यद्यपि यह अनायास या अनजाने में हुई है पर इसे संबद्ध केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा सार्वजनिक उपयोग के लिए सुधारना चाहिए। कोर्ट की एक खंडपीठ में न्यायमूर्ति रंजना देसाई और न्यायमूर्ति आर.जी. केतकर ने  मालुश्ते की  जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए कहा कि राष्ट्रगान में प्रयुक्त सिंध शब्द को बदलकर सिंधु कर देना चाहिए क्योंकि सिंध विभाजन के बाद भारत का हिस्सा नहीं रहा है, लेकिन सिंधु नदी का उद्गम तो भारत में ही है।

बेशक, सिंध को राष्ट्र गान से हटाने की मांग करने वालों के ज्ञान पर तरस ही आता है। सिंध भारत की संस्कृति में गत 5000 वर्षों से जुड़ा है। हिंद शब्द की उत्पत्ति ही सिंधु नदी से ही है। अरब देश के लोग स अक्षर का उच्चारण ह करते हैं। वे सिंधु के पार के देश को हिंद और वहां रहने वालों को हिंदू कहते  थे। राष्ट्रगान से सिंध शब्द निकालने का मुद्दा क्या मात्र सिंधी समुदाय को आहत और उद्वेलित करने वाला है, सारे भारतीयों को नहीं? हर भारतीय चाहे वह सिंधी समुदाय का हो या न हो, यह महसूस करता रहा है कि राष्ट्रगीत के शब्द मात्र काव्यात्मक अभिव्यक्ति का रूप ही नहीं प्रस्तुत करते, बल्कि ये भारत की अखंड आत्मा के परिचायक है। जब सिंध शब्द को राष्ट्रगान से हटाने की बात उठी थी, तब सिंध समाज के बुद्धजीवियों ने भावुक होते हुए  कहा था कि यह याचिका मूर्खतापूर्ण, सतही और स्वप्रचार के लिए की गई है, क्योंकि सिंध एक भौगोलिक इकाई की परिधि से ऊपर रहा है। जहां के इतिहास और सभ्यता व संस्कृति का फैलाव आज भी जीए सिंध आंदोलन के रूप में सीमा के उस पार भी है।

कुछ लोग ये भी कहते रहे हैं कि राष्ट्रगान में सिंध के स्थान पर सिंधु शब्द होना चाहिए। हालांकि सिंधी के जानकार कहते हैं कि गाने और बोलने के लिए दोनों शब्द सिंधु और गीत के लिखित संस्करण में सिंध शब्द का एक ही अर्थ है। इसका अर्थ नदी या सिंधी समुदाय दोनों के रूप में लगाया जा सकता है। वीर सावरकर की कृति हिंदुत्व में सिंधु, सप्तसिंधु और सिंधु सौबीर शीर्षक अध्याय में, जो उन्होंने 1923 में लिखी थी, वह आज भी प्रासंगिक है।

सिंधु घाटी की सभ्यता के क्षेत्र का विस्तार और उसकी नागरी संस्कृति उसकी दशमलव प्रणाली, पंचांग पध्दति, मातृ एवं शक्तिपूजा का वर्णन मुस्लिम इतिहासकारों ने भी किया है। विद्रोही कवि शेख अयाज अब्दुल वाहिद आरेसर, अमर जलील और इमदाद हुसैनी आदि ने बौद्धिक स्तर पर सदैव पाकिस्तान को चुनौती देकर अपने हिंदू अतीत को भी स्वीकार किया है। कहते हैं कि अरब सागर नाम भी गलत है। उसे सिंध सागर कहना चाहिए, क्योंकि सिंध का भूभाग हिंदुस्तान की धरती से जुड़ा है।

सवाल ये है कि क्या हमारे संविधान निर्माताओं की नजर से यह सिंध या अधिनायक शब्दों से जुड़ी त्रुटि बच निकली अथवा वे राष्ट्रगान में अंतर्निहित हर शब्द के मंतव्य से अनभिज्ञ थे? शायद, कभी नहीं। पाकिस्तान के विद्रोही लेखक, चिंतक एवं जीए सिंध आंदोलन के प्रवर्तन अब्दुल वाहिद आरेसर लिखते हैं- हम कुछ वर्षों से पाकिस्तानी और हजारों वर्षों से सिंधी हैं। हम पाकिस्तानी नहीं थे, पर सिंधी थे, मुसलमान नहीं थे, पर सिंधी थे। सिंधी होने का प्रमाण पत्र हमें सिंध की धरती ने दिया है।

कुछ समय पहले राष्ट्रगीत से अधिनायक शब्द को हटाने की मांग भी हुई।  सिंध शब्द हटाने की मांग पहले हो चुकी है। जब सिंध शब्द को हटाने की मांग हुई थी तब देश के करोड़ों नागरिकों का मत था कि गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के इस राष्ट्रगान में किसी भी तरह का बदलाव अनुचित है और वह उनका अपमान भी है। यह गान सर्वप्रथम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में 27 दिसंबर 1911 को गाया गया था।

इकबाल ने देश का बेहद लोकप्रिय गीत लिखा, सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा...। यदि कल कोई कहे कि उसकी शब्दावली आक्रामक और अंधराष्ट्रवादी है और इसलिए इस पर सरकारी कार्यक्रमों या सैन्यबलों के वृंदवादन आदि पर प्रतिबंध लगनी चाहिए, तब क्या कोर्ट इसे भी राष्ट्रद्रोही मानसिकता की उपज नहीं मानेगा? दरअसल 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखित गीत को राष्ट्रगान का दर्जा देना मंजूर किया। उन्हें इस गीत की पृष्ठभूमि के बारे में पता था। उन्हें ये भी पता था कि अब सिंध भारत का अंग नहीं। उन्हें इसमें आने वाले अधिनायक शब्द की भी जानकारी थी। जब एक बार राष्ट्रगान पर फैसला हो गया तो उसमें संशोधन करने का सवाल ही नहीं होना चाहिए। ये बहस से परे का विषय है। और निश्चित रूप से  राष्ट्रगान का अपमान देशद्रोह के दायरे में आता है। इलाहाबाद में राष्ट्रगान के अपमान करने वाले शख्स पर देशद्रोह का मामला बनता है। उस पर कठोर कार्रवाई हो ताकि भविष्य में इस तरह की कोई हरकत न करे।

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