-राजेश्वर त्रिवेदी
वरिष्ठ पत्रकार, दबंग दुनिया
महाश्वेता देवी ने शोषण, उत्पीड़न और आम आदमी के संघर्ष को अपने लेखन के जिस मुखर ढंग से वैश्विक समाज के सम्मुख रेखांकित किया, उससे उनका शुमार दुनिया के उन रचनाधर्मियों में हुआ, जिनके लेखन के केंद्र में पूंजीवाद व शासक वर्ग के अत्याचारों की दास्तान मौजूद रही है। कोई भी पाठक उनकी कृति ‘हजार चौरासी की मां’ को कैसे भूल सकता है, जिसमें एक मां अपने बेटे के माध्यम से एक ऐसे समाज और उसमे मौजूद व्यवस्था से संघर्ष कर रही है जहां अभिव्यक्ति और अपना अधिकार मांगना अपराध है।
‘हजार चौरासी की मां’ के माध्यम से महाश्वेता देवी ने तात्कालिक नक्सल आंदोलन और जनसंघर्ष को बहुत ही बेहतर ढंग से उकेरा था। वे नक्सल आंदोलन की चश्मदीद रही और संभवत: उससे प्रभावित भी। आम लेखकों से महाश्वेता का जीवन और साहित्य बहुत अलग रहा। बंगाल और ओडिशा के सुदूर इलाकों में रहने वाले आदिवासियों और शोषितों की व्यथा-कथा लिखने वाली महाश्वेता देवी ने एक लेखक के सक्रिय सामाजिक हस्तक्षेप में हमेशा ही भरोसा रखा। बिहार, बंगाल, ओडिशा, गुजरात व महाराष्ट्र की जनजातियों के बीच वर्षों काम करने के अनुभव से महाश्वेता देवी को एक ऐसी ताकत मिली, जिससे वे आधुनिक भारतीय जीवन के पीड़ादायक बातों को अनुभव कर सकीं। आदिवासियों के जीवन और वृत्तांत के माध्यम से उन्होंने इतिहास और वर्तमान राजनैतिक यथार्थ को अपने लेखन में ध्वनित किया। बंगाल के एक शिक्षित परिवार में जन्मी महाश्वेता देवी ने अपनी महत्वपूर्ण शिक्षा रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन से प्राप्त की थी।
शांति निकेतन के संस्कारों ने ही उन्हें पठन-पाठन और लेखन के लिए प्रेरित किया। इस बात को उन्होंने अपने आत्म कथ्य में स्वीकार भी किया है। किशोरवय में ही कंधे पर आ चुके पारिवारिक दायित्व को निभाने के प्रति भी महाश्वेता सदा सजग रही। 1944 में महाश्वेता ने कोलकाता के आशुतोष कॉलेज से इंटरमीडिएट किया। कोलकाता से निकलने वाली पत्रिका में उनकी तीन कहानियां छपी। हर कहानी पर दस रुपए का पारिश्रमिक मिला था। तभी उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि लिख-पढ़कर भी गुजारा संभव है। 1947 में प्रख्यात रंगकर्मी विजन भट्टाचार्य से उनका विवाह हुआ। संघर्ष के इन दिनों ने ही लेखिका महाश्वेता को भी तैयार किया। उस दौरान उन्होंने मशहूर लेखकों को पढ़ा। वेझांसी की रानी से इतनी प्रभावित थीं कि उन्होंने उन पर किताब लिखने के लिए उन पर जितनी किताबें थीं, सब
जुटाकर पढ़ी। महाश्वेता ने झांसी की रानी के भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्र व्यवहार किया। सामग्री जुटाने और पढ़ने के साथ-साथ उत्साहित होकर महाश्वेता ने लिखना भी शुरू कर दिया। मगर मन नहीं माना, झांसी की रानी के बारे में और जानने के लिए छह वर्ष के बेटे और पति को कोलकाता में छोड़कर अंतत: झांसी ही चली गईं। अकेले उन्होंने बुंदेलखंड के चप्पे-चप्पे को अपने कदमों से नापा। बुंदेलखंड से लौटकर महाश्वेता देवी ने नए सिरे से ‘झांसीर रानी’ लिखी और यह रचना धारावाहिक छपने लगी। इस तरह महाश्वेता की पहली किताब 1956 में आई। महाश्वेता ने जिस ढंग से इस उपन्यास को लिखा है, उससे रानी के जीवन की घटनाओं की नाटकीयता उसमें उपस्थित हो उठी है। पुस्तक लिखते समय लोककथा, बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास, लोगों के मुंह से सुने लोकगीत ही उनकी प्रेरणा के स्रोत रहे। इस जीवनीमूलक उपन्यास को लिखने के लिए लक्ष्मीबाई के बारे में तरह-तरह की किंवदंतियों के घटाटोप को पार कर तथ्यों व प्रामाणिक सूचनाओं का उन्होंने सहारा लिया।
इस ग्रंथ को महाश्वेता देवी ने कोलकाता में बैठकर नहीं, बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इंदौर, ललितपुर, झांसी, ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं के साथ चलते हुए लिखा। इसमें कथा का प्रवाह कल्पना के सहारे नहीं, बल्कि तथ्यों व दस्तावेज के सहारे निर्मित किया गया है। इसीलिए महाश्वेता देवी की यह जीवनी के साथ-साथ इतिहास को भी हमारे सामने रखती है। ‘झांसीर रानी’ लिखने के बाद ही महाश्वेता देवी समझ पाईं कि वे कथाकार बनेंगी। इसके बाद वे इस युग की एक ऐसी कथाकार बनी जिसकी लेखनी में दलित, दमित शोषित और आम आदमी की जिजिविषा की दास्तान है। महाश्वेता देवी अपने लेखन और विचारों से उस समाज में हमेशा मौजूद रहेंगी जिसमें समाज समता का भाव सभी के लिए मौजूद होगा।