-वीना नागपाल
वह सब उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और एक अच्छे व सुनहरे भविष्य की तलाश में जुटे हैं। जब वह 11वीं व 12वीं में थे, तभी से तो उन्होंने इसका सपना लिया था। इसी कल्पना को लेकर वह अध्ययन कर रहे थे कि जैसे ही उनकी 12वीं का परीक्षा परिणाम आएगा वह आईआईटी अथवा इसी तरह की अन्य शिक्षा प्राप्त करने में दिन-रात एक कर देंगे और इसके प्रवेश के लिए जहां भी जाना होगा, वहां जाकर इसकी तैयारी करेंगे। कई ऐसे संस्थान खुले हुए हैं और जोर-शोर से चल भी रहे हैं जहां जाकर विद्यार्थी अपने भविष्य की तैयारियों में जुट
जाते हैं।
बाहर जाकर अध्ययन करने वाले यह छात्र अपना सपना अपने माता-पिता के साथ शेयर करते हैं। छात्र भी आजकल बहुत सजग हैं। माता-पिता को तो आजकल काफी कुछ सुनना पड़ता है कि और वह प्राय: टारगेट भी बनाए जाते हैं कि वह अपनी महत्वकांक्षा और सपने बच्चों पर लादते हैं और उन्हें मजबूर करते हैं कि वह इन सपनों को पूरा करें। इसी कारण बच्चे बहुत मानसिक तनाव और दबाव में जीते हैं। पर, बच्चे भी कुछ कम नहीं हैं। वह भी आजकल तय करके रखते हैं कि उन्हें किस राह को पकड़ कर कहां तक पहुंचना है। यह उनके चुनाव व इच्छा का भी मामला होता है।
यदि ऐसी स्थिति तब ऐसा क्यों होता है कि बीच रास्ते में ही यह हताश हो जाते हैं और अवसाद से घिर कर आत्महत्या कर लेते हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त कर किसी मुकाम पर पहुंचने की कोशिश को बीच में ही छोड़ देते हैं। उस अति निराशा में डूबकर वह अपने पेरेंटस से माफी मांगते हैं और जिसमें प्राय: वह लिखते हैं कि - माफ करना पापा/मम्मी मैं आपके सपनों को पूरा नहीं कर पाया या कर पाई। दरअसल उन्हें यह तो पता ही होता है कि उन्होंने उड़ान तो ऊंची भरने का सोचा पर अपने पंखों को भली प्रकार नहीं तौला था, तभी तो बीच रास्ते में ही वह थक गए और थकान में वह इतने घिर गए कि वह मृत्यु की भयावहता से भी आतंकित नहीं हुए और उन्होंने आत्महत्या कर ली।
उच्च शिक्षा प्राप्त करने का संबंध तो मन और मस्तिष्क को और स्वस्थ व सुदृढ़ बनाना है पर, आज की उच्च शिक्षा में ऐसे कोई सिद्धांत व मूल्य शामिल ही नहीं हैं। आजकल जैसे हमारे आसपास यंत्रों की दुनिया और उसको चलाने वाले बटन मौजूद हैं उसी तरह शिक्षा ने भी एक ऐसे यंत्र का रूप ले लिया है जो मात्र एक ऐसा भविष्य बना देती है, जिसमें पैकेज की राशि की तो खनक है पर जो जीवन में आशा, विश्वास और जीवन के प्रति आस्था के कुछ भी मूल्य बचाकर नहीं रखती। शिक्षा का यह रूखापन और शुष्कता जीवन को भी एक सूखे व भावनाशून्य समयविधि में बदल रही हैं। इसका कोई भी पक्ष जीवन जीने की कला नहीं सिखाता। एक सुझाव काम में आ सकता है स्कूल जीवन से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों (जिनतमें कोचिंग संस्थान भी शामिल हों) व्यवसायिक होने के साथ-साथ कुछ समय साहित्य के विषयों, कथा, कहानियों व कविताओं तथा नैतिक शिक्षा का भी पाठ्यक्रम पढ़ाएं। इसके लिए समय अवश्य सुनिश्चित करें, जिससें विद्यार्थियों को जीवन का मूल्य और महत्व भी समझ आए।
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