20 Apr 2024, 14:06:06 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

कई बार शिक्षक भी अपने ‘अहम’ के कारण ऐसा व्यवहार कर देते हैं जो उनके शिक्षक होने के पद पर ही प्रश्नचिह्न लगा देता है। उस परिचित परिवार की बच्ची के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है। जब उन्होंने अपनी बच्ची के साथ उसकी क्लास टीचर के व्यवहार के बारे में बताया तो विश्वास करना कठिन हो रहा है पर, वह तो भुक्त भोगी हैं इसलिए व्यवहार को समझ पर रहे हैं।

उस परिवार की बच्ची एक प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ती है। वह उच्च मध्यम वर्गीय परिवार है। पैरेंट्स अच्छे संस्थानों में उच्च पदों पर कार्यरत हैं। जाहिर है कि दोनों ही अपनी आय का बहुत बड़ा भाग बच्ची की शिक्षा पर लगा रहे हैं। आजकल तो निजी प्रतिष्ठित स्कूलों की फीस भी कितनी अधिक हो गई है। उनके लिए भी उनका इतना अच्छा पे पैकेज होने के बावजूद बच्ची की शिक्षा में ही इतनी बड़ी राशि देना पड़ रही है। फिर भी वह अन्य खर्चों में कटौती कर यह राशि दे रहे हैं वह भी इसलिए कि बच्ची का भविष्य संवर जाए पर इतना व्यय करने के बावजूद बच्ची अपने स्कूल में खुश नहीं है। उसे बात-बात पर टीचर डांटती है। उसके बहुत परिश्रम से बनाए गए प्रोजेक्ट्स को रिजेक्ट कर दिया जाता है या उसमें इतनी कमियां निकाली जाती हैं कि वह बहुत हर्ट महसूस करती है। उसके चेहरे पर उदासी छाई रहती है। इससे पहले उसकी पिछली क्लास में तो ऐसा नहीं था। बच्ची ने 94 प्रतिशत से अधिक अंक हासिल किए थे और वह बहुत खुशी-खुशी स्कूल जाती थी और अन्य गतिविधियों में बहुत उत्साह से भाग लेती थी। आज उसके साथ ऐसा नहीं है। उससे उसकी क्लास टीचर निरंतर क्रोधित रहती है। हुआ यूं कि एक दिन वह बच्ची अपनी क्लास की एक अन्य छात्रा के साथ किसी बात पर मुंह छिपाकर हंस रही थी। टीचर ने देख लिया, उन्हें लगा कि उन दोनों ने उसका मजाक बनाया है। उस दिन तो वह बच्ची दंडित हुई ही पर, उसके बाद टीचर ने इस बात की गांठ बना ली और जब-तब बच्ची को अकारण ही डांटा-डपटा जाने लगा। दरअसल टीचर ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। पता नहीं कैसे उनके अहम को इससे चोट पहुंची और स्वयं एक चिढ़ से भर गईं, जिसका नतीजा उस बच्ची को भुगतना पड़ रहा है। उसके पैरेंट्स कई बार सोचते हैं कि प्रिंसिपल अथवा उन टीचर से मिलकर बातचीत कर समस्या का हल ढूंढ़ लें पर, वह यह सोचा कर रह जाते हैं कि इससे बात और न बढ़ जाए। अब उनके पास कोई और चुनाव नहीं बचा सिवाय इसके कि वह बच्ची को स्कूल से निकाल लें, परंतु आज किसी अन्य स्कूल में एडमिशन लगभग असंभव होता है।

यह समस्या केवल उस परिवार की ही नहीं है। आजकल नामी-गिरामी तथाकथित पब्लिक स्कूल हैं। यह निजी स्वामित्व व प्रबंधन के स्कूल हैं और पूर्णत: व्यवसायिक प्रवृत्ति से चलते हैं। यहां टीचर्स को भी व्यवसायी प्रवृत्ति ही घेरे रहती है। उन्हें केवल वेतन पाने से मतलब होता है। एक शिक्षक और उसके शिष्यों में जो भावनात्मक संबंध होता है। एक शिक्षक शिक्षा देने से जुड़ा हुआ नहीं है उसका मूल कर्तव्य कोर्स खत्म करवाना और परीक्षा में अंकों का प्रतिशत बढ़ाना है। अब शिक्षक में ही शिक्षा देने की मूल प्रवृत्ति ही नहीं है, शेष है तो वह एक साधारण व्यक्ति की भांति अपनी ही प्रवृत्तियों से घिरा रहता है। उस पर एक बोझ है, एक तनाव है इसलिए वह शिष्य की एक मासूम शरारत तथा हरकत भी सहन नहीं कर पाता। उसे शिष्य प्रिय नहीं लगते बल्कि एक वस्तु की तरह लगते हंै जिनके प्रति वह किसी हद तक निष्ठुर भी हो उठता हैै। एक मामूली बात पर उसका अहम जाग उठता है और वह इसे ग्रांथ बनाकर वैसा ही व्यवहार करने लगता है। जब तक शिक्षा आसानी से और अपने मूलभूत स्वरूप में नहीं लौटेगी मासूम शिष्यों को इसी व्यवहार का टारगेट बने रहना पड़ेगा।

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