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मोटे वेतन के बाद काम करेंगे बाबू

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jul 27 2016 9:55AM | Updated Date: Jul 27 2016 9:55AM
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-आर.के. सिन्हा
लेखक राज्यसभा सदस्य हैं।


अब बहुत जल्दी केंद्र सरकार के बाबुओं की जेबें भरने वाली हैं। उनके वेतन में तगड़ा इजाफा हुआ है। सातवें वेतन आयोग ने मुलाजिमों के मूल वेतन में तगड़ा इजाफा किया है। सातवें वेतन आयोग की रपट के मुताबिक सरकार में न्यूनतम वेतन 18,000 रुपए प्रति महीना हो रहा है।  सर्वोच्च पद के लिए अधिकतम वेतन 2.25 लाख रुपए और कैबिनेट सचिव और समान स्तर के अन्य पदों के लिए 2.50 लाख रुपए प्रति महीना होगा। साफ है कि सरकारी बाबू मजे में रहेंगे।

वेतन वृद्धि के ऐलान के बाद 50 लाख सरकारी कर्मचारी और 58 लाख पेंशनधारियों के हाथों में ज्यादा पैसा आएगा। केंद्र सरकार के बाबुओं के बाद राज्य सरकारों में काम करने वाले बाबुओं को भी लाभ मिलेगा। इन्हें बेहतर पगार मिले और इन्हें बाकी भी सुविधाएं मिलें इसमें किसी को कोई एतराज क्यों होगा? लेकिन अब बड़ा सवाल ये है कि क्या अब सरकारी दफ्तरों में काहिली और करप्शन खत्म होगी? क्या वेतन में वृद्धि के साथ इन बाबुओं की जवाबदेही को भी सरकार बढ़ाने जा रही है? अधिकार और कर्तव्य तो साथ-साथ चलें तो ही मजा आता है। ताजा स्थिति ये है कि बाबू अधिकार तो ले रहे हैं, पर कर्तव्यों के मोर्चे पर उस तरह से सक्षम साबित नहीं हो रहे। कोशिश भी नहीं कर रहे। आप किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइए आपको सूरते हाल पहले वाले ही मिलेंगे। सवालों के जवाब टालू अंदाज में दिए जाएंगे। वहां पर सारा माहौल बेहद बोझिल लगेगा। बाबू इस अंदाज में बैठे होते हैं मानो उन्हें कोई सजा दी जा रही है। काम को करने को लेकर किसी तरह का विशेष आग्रह या उत्साह नहीं दिखता।

केंद्र में सत्तासीन होने के बाद मोदी सरकार ने सरकारी दफ्तरों में बैठे कर्मचारियों पर नजर रखने का फैसला किया था। तब कहा गया था कि सरकार अब उनके आने-जाने के समय और उनके काम पर नजर रखेगी। यदि सरकार को किसी कर्मचारी के काम में किसी भी प्रकार की लापरवाही नजर आई तो उसकी छुट्टी कर दी जाएगी। अब मालूम नहीं कि इन कदमों को उठाने से कितना लाभ हुआ पर अब भी पब्लिक डीलिंग करने वाले सरकारी दफ्तरों के कामकाज में कोई खास सुधार देखने में नहीं आ रहा। हैरानी होती है कि वेतन आयोग की भारी भरकम सिफारिशों को लागू करने के सरकार के फैसले के बाद भी केंद्रीय कर्मियों की मजदूर यूनियनों ने हड़ताल पर जाने की धमकी दी थी। इनका कहना था कि इन्हें उम्मीद के मुताबिक बढ़ा हुआ वेतन नहीं मिल रहा। इन्होंने अपनी हड़ताल वापस भी ले ली, लेकिन इन्होंने कभी अपनी यूनियन से जुड़े बाबुओं से इस बात का आग्रह तक नहीं किया कि वे अपने काम को लेकर भी तनिक गंभीरता बरतें। क्यों? यानी सिर्फ पंजीरी खाएंगे सरकारी बाबू।

बेशक, ये कहना भी सर्वथा अनुचित होगा कि सभी सरकारी कर्मचारी निकम्मे हैं। बहुत से सरकारी कर्मी मेहनत भी करते हैं लेकिन, कुल मिलाकर हालात गंभीर है । आपको लगातार सरकारी बाबुओं के घूस लेते पकड़े जाने के समाचार पढ़ने-देखने को मिलेंगे। यानी मोटी पगार के बाद भी ऊपरी कमाई की प्यास बुझ ही नहीं रही है। कुछ दिन पहले आंध्रप्रदेश के एक भ्रष्ट आईएएस अफसर की गिरफ्तारी की खबर पढ़ने को मिली। खबर पढ़कर कोई भी हैरान हो जाएगा। आरोपी अफसर ए. मोहन की पूर्वी गोदावरी जिले में परिवहन विभाग के उपायुक्त के पद पर तैनाती थी। एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) ने डिप्टी ट्रांसपोर्ट कमिश्नर ए. मोहन के घर पर छापा मारा। छापेमारी के बाद जब भ्रष्टाचार की बदौलत अर्जित की गई संपत्तियों का आंकलन किया गया, तो 800 करोड़ की काली कमाई का खुलासा हुआ है। अब जरा देखिए कि जब ऊंचे पदों पर आसीन अफसरों का ये हाल, तो नीचे के ओहदों पर काम करने वालों को तो एक तरह से शह ही मिलती है, लूट-खसोट करने की। यह तो एक उदाहरण मात्र था। इस तरह के सैकड़ों केस हमारे सामने हैं।

अफसोस इस बात का होता है कि सरकारी बाबू अब भी अपनी ड्यूटी के वक्त अपनी सीट से नदारद होते हैं। लंच खत्म होने के बाद बड़ी मुश्किल से अपनी सीट पर तशरीफ लाते हैं। दिल्ली में उद्योग भवन, शास्त्री भवन, कृषि भवन और दूसरे सरकारी दफ्तरों के बाहर जाड़े के वक्त धूप सेंक रहे होते हैं। कुछ समय पहले एक बैंक में महिला कर्मी अपने पुत्र को लेकर आई हुई थी। बच्चा छोटा था। महिला ने उसकी करीब दो दर्जन छोटी खिलौना कारें अपने डेस्क पर ही रखी हुई थीं। बच्चा वहीं पर ही खेल रहा था और वो महिला बैंक कस्टमर्स की बात सुनने का वक्त नहीं निकाल पा रही थीं। क्या वे मोहतरमा किसी प्राइवेट नौकरी में यह सब कर सकती है? बेशक नहीं। तो सरकारी नौकर को कामचोरी का अधिकार क्यों मिले? कभी-कभी तो लगता है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग करने के पीछे एक मकसद होता है। यानी सरकारी नौकरी पाने के बाद जीवन भर काम नहीं करने की सुविधा मिल जाए। जाहिर है, प्राइवेट सेक्टर की तरह इधर भी काम करना पड़े तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण करने की मांग करने वाले गायब हो जाएंगे। बेशक, सरकारी नौकरियों पर टूट कर पड़ने का एक बड़ा कारण इनमें मिलने वाली जॉब सिक्यूरिटी है। घूस खाने के अकूत अवसर तो सरकारी नौकरी देती ही है। यहां कामचोरी करने के बावजूद नौकरी सुरक्षित रहती है, जबकि निजी कंपनी में कामचोरी करने पर नौकरी तुरंत साफ हो जाती है। कड़वा सच ये है कि हर सरकारी दफ्तर में काहिलों की फौज रहती है।
सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के तहत  पेंशन लेने वाले बाबुओं की पेंशन में 24% वृद्धि की गई है। यानी उनके भी मजे आ गए। वेतन आयोग की सिफारिशें 1 जनवरी, 2016 से लागू की जाएंगी। यानी इस साल सरकारी बाबुओं की दिवाली वक्त से पहले आ रही है। बेशक सरकारी बाबुओं के तो अच्छे दिन आ गए हैं। अब सरकार को काम चोर सरकारी कर्मियों पर लगाम कसनी होगी। सरकारी दफ्तरों में फैला करप्शन का कोढ़ खत्म करना होगा।   निश्चित रूप से अगर राज्य सरकारों ने भ्रष्टाचार रोकने के लिए सघन पहल की होती तो दिल्ली से सटे  नोएडा और ग्रेटर नोएडा अथारिटी में यादव सिंह जैसे भ्रष्ट अफसर पैदा ही न हुए होते। अगर बात उत्तर प्रदेश की करें तो राज्य में भ्रष्टाचार थामने की कवायद वर्ष 1965 में प्रदेश में सतर्कता अधिष्ठान अधिनियम बना कर शुरू तो की गई लेकिन कभी सियासी फरमानों, तो कभी वरदहस्त जैसी रुकावटों ने इसे न केवल थाम दिया बल्कि बचने का अड्डा बना दिया है।

अब वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद सरकार के पास अवसर है कि वह सरकारी विभागों में कामकाज को चुस्त कर दे, वरना बाबुओं के वेतन में इतना इजाफा करने का कोई मतलब ही नहीं रहेगा। जरा इधर भी गौर कीजिए, राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के सांसद नरेश अग्रवाल ने मांग की है कि सांसदों का वेतन मंत्रिमंडल सचिव से कम से कम एक हजार रुपया अधिक होना चाहिए। प्रोटोकॉल का सवाल है।  वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद कैबिनेट सचिव का वेतन 2.5 लाख रुपए होगा। अब ये देखने वाली बात है कि नरेश अग्रवाल की मांग पर सरकार का रुख किस तरह का रहता है।

 

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