-लोकेंद्र नामजोशी
लेखक बैंकिंग और आर्थिक मामलों के जानकार हैं।
आगामी 29 जुलाई को देशभर के लगभग 10 लाख से अधिक बैंक कर्मचारियों ने, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय, निजीकरण एवं सरकार की कर्मचारी विरोधी नीतियों के चलते एक बार फिर से हड़ताल पर जाने का ऐलान कर दिया है। उल्लेखनीय है की वर्तमान सरकार द्वारा सरकारी बैंकों का स्वामित्व निजी हाथों में देने एवं राष्ट्रीयकृत बैंकों को आपस में विलय करने जैसे कार्य को बड़े जोर शोर से अंजाम दिया जा रहा है। इसके चलते बैंक कर्मचारियों का चिंतित होना लाजिमी है एवं विरोध स्वरूप उनके पास हड़ताल पर जाने के एकमात्र विकल्प के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
दरअसल, केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा अभी हाल ही में स्टेट बैंक की पांच सहयोगी बैंकों एवं महिला बैंक को भारतीय स्टेट बैंक में विलय की अनुमति प्रदान की गई थी, जिसके चलते यह चर्चा जोरों से उभर कर आई कि सरकार की मंशा भविष्य में बाकी बची 21 राष्ट्रीयकृत बैंकों का आपस में विलय कर केवल पांच या छह प्रमुख राष्ट्रीयकृत बैंकें रखने की है। लिहाजा जहां तक विगत में बैंकों के विलय की बात है तो, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा वर्ष 1969 एवं 1980 में क्रमश: 14 एवं 6 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके भारतीय बैंकिंग इतिहास में एक नए आर्थिक क्रांतिकारी अध्याय की शुरुआत की गई थी।
वर्ष 1985 के बाद अब तक 25 से अधिक निजी बैंकों का दिवाला निकलने एवं उनके जबरदस्त घाटे में होने के बावजूद उनका जबरदस्ती राष्ट्रीयकृत बैंकों में विलय किया गया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने के पश्चात केवल स्टेट बैंक आॅफ इंदौर एवं सौराष्ट्र का क्रमश: 2011 एवं 2015 में एसबीआई में एवं न्यू बैंक आॅफ इंडिया का पंजाब नेशनल बैंक में वर्ष 1993 में विलय किया गया था। उल्लेखनीय है की राष्ट्रीकरण के पश्चात सरकार की कमजोर वर्गों एवं बड़े कॉरपोरेट घरानों को ऋण बांटो एवं भूल जाओ की नीति अपनाने के बावजूद भी सरकारी बैंकों ने जबरदस्त लाभ कमाया था। अलबत्ता राष्ट्रीयकरण के पूर्व निजी बैंकों का गाजर घास की तरह उग आना एवं रातों-रात बंद हो जाना एक आम बात थी। वही वर्ष 1951 में निजी क्षेत्र की 566 बैंकें कार्यरत थी जो घटते हुए वर्ष 1969 में 89 तथा वर्ष 2005 में मात्र 23 रह गई थी। जिसके चलते आम आदमी की पसीने से कमाई हुई गाढ़ी कमाई स्वाहा हो गई थी।
बैंकों के निजीकरण की बात करें तो तत्कालीन सरकार द्वारा वर्ष 1990 के दशक के शुरुआती दौर में कई निजी कारोबारियों को नए बैंकिंग लाइसेंस जारी किए गए थे। परिणामस्वरूप देश में आईसीआईसीआई, एचडीएफसी, ऐक्सिस बैंक, कोटक महिंद्रा बैंक, यस बैंक जैसे 10 बैंक अस्तित्व में आए थे, जिनमें से पांच बैंक विफल हो गए थे। जिसके चलते समूचे बैंकिंग जगत में निजी बैंकों कि हिस्सेदारी 25 फीसदी से आगे नहीं बढ़ पाई, और बाकी 75 फीसदी हिस्सेदारी पर सरकारी बैंकों का वर्चस्व पूर्ववत बना रहा। ज्ञात हो कि इस समय देश में सरकारी सेक्टर में कुल 21 बैंक, प्राइवेट सेक्टर में 22 और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की संख्या 56 है।
विगत सालों में निजी औद्योगिक घरानों को बैंकिंग क्षेत्र में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का मौका देकर सरकार द्वारा यह उम्मीद जताई गई थी कि वे सरकारी बैंकों के साथ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कर सुधार का माहौल बनाने की कोशिश करेंगे। दलील यही थी कि एक जीवंत निजी क्षेत्र तेजी से विकसित होगा जो सरकारी बैंकों के एकाधिकार को दरकिनार कर अपना वजूद कायम करेगा, लेकिन बड़े अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हालात यह है कि आज के सरकारी बनाम निजी बैंकों कि गला काट प्रतियोगिता के दौर में सरकारी बैंकों कि कार्यप्रणाली व साख निजी बैंकों से कई गुना अधिक है।
देश का आम आदमी आज भी सरकारी बैंकों पर आंख मींच कर भरोसा करता है। फिर वह जमाओं एवं ऋण पर ब्याज दरों का मामला हो या फिर अपनी बचत कि सुरक्षा का मामला हो। अनुभव बताते हैं कि इन निजी औद्योगिक घरानों का बैंकिंग कारोबार का इतिहास कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। इन्हें देश के सामाजिक ताने-बाने और कमजोर वर्गों के उत्थान से कोई सरोकार नहीं होता। इनका मुख्य उद्देश्य अपनी कारोबारी पूंजी को बढ़ाते हुए शुद्ध लाभ से अपनी जेबें भरना है, जिसके लिए यह किसी भी स्तर पर जाने के लिए तत्पर रहते हंै। नतीजतन देश का आर्थिक व सामाजिक बैंकिंग परिदृश्य प्रभावित होता है।
‘अतीत मरा नहीं है। वह बीता भी नहीं है।' सुप्रसिद्घ अमेरिकी उपन्यासकार विलियम फॉकनर के इस कथन पर ध्यान दें तो हमें याद आता है अतीत में सन 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाना। राष्ट्रीयकरण के पश्चात सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों ने अपनी निष्पक्ष और निर्विवाद कार्यप्रणाली के बल पर देश कि अर्थव्यवस्था में अपना एक अलग ही मुकाम हासिल किया था जो आज भी कायम है। यही नहीं समाज के शक्तिशाली और कमजोर वर्ग के भेद को दरकिनार कर सभी को एक समान रूप से अवसर उपलब्ध कराते हुए राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी वैश्विक पहचान बनाई है। लिहाजा, बैंकों के विलय एवं निजीकरण के विरोध में बैंक कर्मचारियों द्वारा जो हड़ताल एवं विरोध किया जा रहा है, वह न केवल जायज है, बल्कि कर्मचारियों के निजी हित के साथ ही देश की तरक्की एवं आर्थिक सेहत के लिए भी फायदेमंद है। लिहाजा, सरकार को इस पहलू पर भी गौर करना चाहिए।