-दुर्गेश गौर
लेखक शिक्षा एवं आर्थिक विषयों पर लिखते हैं।
कहा जाता है कि आर्थिक एवं सामाजिक विकास एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर आगे बढ़ते हैं अथवा एक-दूसरे के पूरक होते हैं। इस बात के संदर्भ में जापान एक आदर्श उदहारण है जिसने अपनी बेहतर सामाजिक स्थिति एवं शिक्षा के चलते न केवल द्वितीय विश्व युद्ध की परमाणु त्रासदी से वापसी की बल्कि अगले दो ही दशक में खुद को पुन: एक आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित भी किया। वैश्विक पटल पर जापान के उभार का मुख्य कारण उसकी समावेशी शिक्षा व्यवस्था को माना जाता है। साथ ही अन्य विकसित देश जैसे की अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस और अब चीन भी अपनी शिक्षा व्यवस्था पर विशेष जोर देते हैं, जिसका सकारात्मक प्रभाव उनकी तकनीकी क्षमताओं और वैश्विक वर्चस्व के रूप में देखा जा सकता है।
विगत समय में भारत ने भी अपनी शिक्षा व्यवस्था पर खासा जोर दिया है। शिक्षा को अधिक समावेशी बनाने के लिए सन् 2009 में सरकार ने शिक्षा के अधिकार को कानून बनाकर छह से 14 वर्ष की आयु के बच्चों की शिक्षा को मौलिक अधिकारों में शामिल किया व बजट में शिक्षा पर होने वाले खर्च में भी सुधार किया।
बहरहाल, भारतीय शिक्षा तंत्र का संचालन मूलत: सरकारी एवं प्राइवेट संस्थाओं द्वारा किया जाता है परंतु दोनों ही ओर व्याप्त अपनी-अपनी तरह की समस्याएं शिक्षा जगत के भविषय को संशय पूर्ण बनाती हैं। वो भी तब जब जननांकीय अधिलाभ (डेमोग्राफिक डिविडेंड) पर बैठे दुनिया के सबसे जवान भारत देश का सुनहरा भविष्य अपने आगाज पर है। शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए सरकार, लगभग फ्री सरकारी स्कूलों की पहुंच शहरों से लेकर गांव देहातों तक उपलब्ध कराती है, लेकिन यहां समस्या गुणवत्ता की है। अध्यापकों का वक़्त पर स्कूल न पहुंचना, अनुपस्थित पाया जाना, भर्ती के वक्त शैक्षणिक योग्यताओं के होने के बावजूद भी बच्चों के शिक्षण में ईमानदारी से योगदान न देना, उचित निगरानी का अभाव आदि वे कारण हैं जिनकी वजह से कई सर्वेक्षणों में सरकारी स्कूलों में पड़ने वाले आठवीं के बच्चों में गणित एवं अन्य विषयों का साधारण ज्ञान भी नहीं पाया गया। परिणामस्वरूप विकल्प के रूप में प्राइवेट स्कूलों का सामने आना लाजिमी है।
भारत की कुल शहरी शिक्षा में प्राइवेट स्कूलों का योगदान 60 फीसदी से ऊपर है जो यह दर्शाता है कि 45 फीसदी के मध्यम वर्ग के आलावा नीचे तबके के लोग भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की चाह में प्राइवेट स्कूलों को महत्व देते हैं, लेकिन यहां एक अन्य तरह कि समस्या प्राइवेट स्कूलों के दृष्टिकोण में है, जिसके चलते वह शिक्षा को 110 बिलियन डॉलर एजुकेशन इंडस्ट्री के रूप में देखते हैं व अधिक से अधिक लाभ की चाह में शिक्षा का व्यापार करता है। इस वजह से स्कूल फीसों का अनियंत्रित होकर बढ़ना, किताबों, यूनिफार्म , ट्रांसपोर्टेशन के लिए मनचाहा शुल्क वसूलना, टूरिंग , स्पोर्ट्स, एक्जिबिशन व अन्य एक्स्ट्रा कॅरिकुलम एक्टिविटीज के नाम पर सत्र के बीच में ही कई तरह की उगाही की जा रही है। इससे प्राइवेट स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था जटिल बन रही है। यहां गौरतलब है कि अभी हाल ही मुंबई उच्च न्यायालय ने एक मामले में प्राइवेट स्कूलों को धन कमाने का रैकेट कहते हुए संज्ञान लिया, जब एक प्राइवेट स्कूल द्वारा मुख्य फीस के आलावा अन्य शुल्कों की मांग पूरी नहीं कर पाने पर बच्चे को बीच सत्र में ही स्कूल से बाहर कर दिया गया। प्राइवेट स्कूलों की इन मनमानियों के चलते अन्य दूरगामी आर्थिक दुष्परिणाम पड़Þना भी लाजिमी है, जैसे अधिक शिक्षा खर्च के चलते परिवार की डिस्पोजेबल आय (टैक्स के बाद खर्च योग्य आय) पर नकारात्मक असर होना, विवेकाधीन आय में शिक्षा का खर्च बढ़ जाना, परिणामस्वरूप स्वास्थ्य पोषण एवं बचत पर असर पड़ना। मध्यम वर्ग में नौकरियों कि अनिश्चितताओं के बीच शिक्षा का बढ़ा हुआ तय खर्च भी एक समस्या की तरह है। एक सर्वेक्षण में सामने आया कि जून से लेकर अगस्त अंत तक बाजारों में छा जाने वाली मंदी के मूल कारणों में स्कूल व कॉलेजों में चल रहे एडमिशन का खर्च है, जिनकी वजह से परिवारों कि विवेकाधीन आय का बड़ा भाग शिक्षा शुल्कों में लगा दिया जाता है। अत: महंगी एवं व्यापार आधारित शिक्षा का जोरदार असर मूल अर्थव्यवस्था व परिवारों कि माली हालत पर देखा जा सकता है।
इस परिप्रेक्ष्य में नए मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर की भूमिका एक सुधारक की तरह होनी चाहिए। सबसे पहले उन्हें सरकारी स्कूलों कि गुणवत्ता में सुधार लाकर उन्हें प्राइवेट शिक्षा का मजबूत विकल्प बनाकर पेश करना चाहिए, जैसा कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी, आईआईएम, एआईआईएमएस, एनआईटी आदि के रूप में उपलब्ध है। यूपी सरकार की तर्ज पर सारे देश में सरकारी कर्मचारियों के बच्चों का सरकारी स्कूलों में पढ़ना अनिवार्य होना चाहिए, जिससे सरकारी व्यवस्था को चलाने वाली मशीन का विशेष ध्यान उसके परिचालन पर पड़े।
सरकारी स्कूलों पर निगरानी में तकनीक पर विशेष जोर होना चाहिए, जिससे जिला मुख्यालयों द्वारा उन पर उचित निगरानी की जा सके। वहीं शिक्षा क्षेत्र के लिए भी बीमा, बैंकिंग, संचार, उड्डयन आदि क्षेत्रों की तरह अलग से नियामक होना चाहिए जो उसके शुल्कों व अन्य जरूरतों को तर्कसंगत बनाए। शिक्षा शुल्कों का वर्गीकरण भी अभिभावकों की आय के हिसाब से अलग अलग होना चाहिए जैसा की आयकर के लिए स्लैब्स बना कर किया जाता है। ऐसा करने का एक अन्य फायदा सरकार को अधिक कर आय के रूप में भी होगा, क्योंकि स्कूल्स के दबाव के चलते रिटर्न फाइल करना अब ज्यादा आवश्यक होगा। साथ ही देश में उद्यमिता का माहौल तैयार करने के लिए सरकार को महंगी उच्च शिक्षा पर भी लगाम लगाना चाहिए, क्योंकि महंगे शिक्षा ऋण से ग्रस्त किसी विद्यार्थी का पुन: जोखिम उठाकर उद्यम करना एक कठिन पहल है।