24 Apr 2024, 02:21:31 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

- अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक


उत्तरप्रदेश के नोएडा से लगी दादरी तहसील के बिसाहड़ा गांव में गो हत्या मामले में एक नागरिक अखलाक  की हत्या को लेकर पूरे देश में इंकलाब का शंख फूंकने वाले पुरस्कार वापसी ब्रिगेड के रहनुमा अब पता नहीं किस कोठरी में जाकर सोए पड़े हैं। उन्हें अदालत का यह आदेश नहीं सुनाई पड़ रहा है कि अखलाक  के परिवार के विरुद्ध गोहत्या के जुर्म में पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराई जानी चाहिए। इन लोगों ने किस तरह आसमान सिर पर उठाते हुए सीधे सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और इसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेते हुए फरमान पर फरमान जारी करने में देर नहीं लगाई थी कि अखलाक  के घर में गोमांस नहीं था और वह बेगुनाह था जबकि मांस परीक्षण प्रयोगशाला की जांच रिपोर्ट में कह दिया गया है कि अखलाक  के घर में गो मांस ही था।

मगर यह भी साफ हो जाना चाहिए कि अखलाक  की हत्या जिस तरह से की गई वह भी गैर-कानूनी काम था, क्योंकि किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती मगर नरेंद्र मोदी से व्यक्तिगत चिढ़ रखने वाले लोगों को यह बहाना मिल गया था कि देश के प्रधानमंत्री की छवि को ही दागदार न कर दें, बल्कि पूरी दुनिया में भी भारत की छवि को दागदार दिखा दें। इसके साथ ही यह घोषणा कर दें कि भारत में असहिष्णुता का बोलबाला हो गया है। ऐसे लोगों को अपने चेहरे खुद आईने में देख कर सच बयानी करनी चाहिए। जो मामला पूरी तरह से कानून-व्यवस्था और अपराध से जुड़ा हुआ था उसे अवार्ड वापसी ब्रिगेड ने असहिष्णुता का जामा पहना दिया और यह ऐलान कर दिया कि भारत का प्रधानमंत्री इसके लिए जिम्मेदार है।

संसद के सत्र का वक्त है और इस बारे में सभी दलों के सदस्यों को विचार करना चाहिए कि दादरी कांड को लेकर राष्ट्रीय छवि के साथ जो मजाक किया गया है उसकी भरपाई किस तरह की जा सकती है। अपने पुरस्कार वापस करने वाले लोग क्या देश की जनता से माफी मांगेंगे और नयन तारा सहगल क्या यह घोषणा करेंगी कि उनसे बहुत बड़ी गलती हो गई थी। जिस देश में सभी धर्मों और मतों के लोग सदियों से पूरे भाईचारे के साथ रहते आए हों उसे असहिष्णुता शब्द को उछाल कर अवार्ड वापसी ब्रिगेड ने राष्ट्रीय अपराध जैसा कारनामा किया था, क्योंकि इन लोगों ने राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर भारत को पूरी दुनिया में शर्मसार करने की कार्रवाई की थी। सवाल उत्तरप्रदेश की कानून-व्यवस्था का था मगर उसे रंग और तेवर दे दिए गए सांप्रदायिक उन्माद के।

जरा जनाब अशोक वाजपेयी अब बयान जारी करें और दुनिया को बताएं कि क्या किसी राज्य में कानून के खिलाफ काम करना अपराध है कि नहीं? क्या पुरानी सरकारों के रहमो-करम पर खुद को साहित्य पुरोधा और पुरस्कारों से सुशोभित करने वाले माननीय वाजपेयीजी यह बताने का कष्ट करेंगे कि गो हत्या से किसी एक संप्रदाय की भावनाओं को चोट पहुंचती है कि नहीं। जिस राज्य उत्तरप्रदेश में 1955 से गो हत्या पर प्रतिबंध है, वहां ऐसी घटना का होना क्या कानून सम्मत है? छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी लोगों के लिए यह शगल रहा है कि बहुसंख्यक हिंदू समाज की धार्मिक मान्यताओं और विश्वास का कोई मतलब नहीं होता है, मगर जब कोई तस्लीमा नसरीन किसी दूसरे धर्म में फैली कट्टरता को चुनौती देती हैं तो ये सब चादर ओढ़कर सो जाते हैं।

वास्तव में भारत की संस्कृति शुरू से ही धार्मिक कट्टरता को चुनौती देने की रही है और पाखंड को तो इसने कभी स्वीकार ही नहीं किया, मगर गो हत्या के मामले में न हिंदू समाज किसी पाखंड से बंधा हुआ है और न कट्टरता से। उसकी पूजा हमारी कृषि प्रधान संस्कृति से सीधे जुड़ी हुई है, मगर सवाल आस्था या विश्वास से ज्यादा सामाजिक सहिष्णुता का है।

अवार्ड वापसी के धुरंधर तो कल को यह भी कह सकते हैं कि भारतीय जो नदियों से लेकर पशु-पक्षियों और पहाड़ों व वनस्पति तक की पूजा करते हैं, दूसरे धर्म के मानने वाले लोगों के प्रति असहिष्णु भाव अपनाते हैं? जबकि हकीकत यह है कि मनुष्य जीवन में विकास का मतलब प्रकृति प्रदत्त सौगातों का ही लगातार संशोधन और परिमार्जन होता है। मगर दादरी कांड को लेकर जिस तरह से पूरे देश में बवाल मचाने की कोशिश की गई, उससे यह तो स्पष्ट हो गया कि तथाकथित साहित्य व कला प्रेमी लोग राजनीतिक सत्ता बदल से किस तरह साहित्य और कला के रंग को ही बदलने लगते हैं। ऐसे लोगों को क्या कहा जाए?

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