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जैसे शरीर में आत्मा, वैसे ही जीवन में जरूरी है सद्गुरु

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jul 19 2016 10:35AM | Updated Date: Jul 19 2016 10:36AM
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-शैलेंद्र जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, दबंग दुनिया



जीवन में गुरु का महत्व वैसा ही होता है, जैसा शरीर में आत्मा का। बिना संस्कार और शिक्षा के सही तरीके से जीवन जीना नहीं सीख सकते। जोे व्यक्ति जीने का मतलब सिर्फ खाना और सोना समझता है उसका जीवन व्यर्थ है। एक व्यक्ति के जीवन में कई तरह के गुरु आते हैं, प्रथम गुरु तो माता ही होती है, जो आपको जीवन का मूल्य बताती है। वह आपको चलना, खाना और कपड़े पहनना सिखाती है। इसके अलावा एक गुरु वह है जो पढ़ना-लिखना सिखाता है। वह भी गुरु ही है जो तकनीकी शिक्षा देता है या फिर जो खेल के गुर सिखाकर आपको एक अच्छा खिलाड़ी बना देता है, लेकिन सबसे अहम है आध्यात्मिक गुरु जो आपको न केवल मोक्ष का मार्ग दिखाता है बल्कि जीवन में किसी मोड़ पर निर्णय न कर पाने की स्थिति में मार्गदर्शन देता है।

आध्यात्मिक गुरु ही है जो आपको बाहरी भटकाव से बचाकर अपने भीतर की ओर मुड़ने की सीख देता है। वास्तव में आपको जिस भी चीज का बोध हो रहा है, वो पांच इंद्रियों के माध्यम से ही हो रहा है। इस समय, आपके जीवन का सारा अनुभव देखने, सुनने, सूंघने, चखने और छूने से जुड़ा है। जीवन की प्रकृति ही ऐसी है कि इंद्रियां केवल बाहरी बोध ही करवा सकती हैं। आप अपने आसपास देख सकते हैं, लेकिन आप अपनी आंखों की पुतलियां घुमा कर, भीतर की ओर नहीं देख सकते। अगर कोई चींटी आपके हाथ पर चले तो आप उसे महसूस कर सकते हैं, पर अपने भीतर भरे रक्त के प्रवाह को महसूस नहीं कर सकते। पांचों इंद्रियां तभी खुलती हैं, जब आप मां के गर्भ से बाहर आते हैं, क्योंकि यह आपके जीवित रहने के लिए बहुत जरूरी है।

अगर आप इससे अधिक कुछ चाहते हैं, जो कि इंसानी स्वभाव है, उसे आपको अपने भीतर की ओर मोड़ना होगा। अपने अंतर में झांकने और उसमें प्रवेश का द्वार आपसे कितना दूर है? क्या आपको इसे पाने के लिए हिमालय की गुफाओं की ओर जाना चाहिए? ऐसा बिल्कुल भी जरूरी नहीं है, सच मानिए हिमालय की सभी गुफाएं भर गई हैं, अब वहां कोई जगह नहीं बची।

शंकराचार्य मठ इंदौर के प्रभारी डॉ. गिरीशानंद महाराज कहते हैं गुरु मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है और वह जीवन संग्राम से जूझने की कला भी सिखाता है। गुरु ही है जो अंतर के अज्ञान रूपी अंधकार को ज्ञान से प्रकाशित करता है। अंधकार को प्रकाश की ओर ले जाता है और व्यक्ति को उसके स्वरूप का बोध कराता है। मृत्यु से अमरता की ओर ले जाता है। व्यक्ति को नया जन्म देता है, इसलिए माना जाता है कि गुरु ही ब्रह्मा है, वह जीवन संग्राम से जूझने की कला सिखाता है इसलिए विष्णु है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है इसलिए शंकर भी वही है। शास्त्रों में कहा गया है- ‘गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:, गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नम:’ के साथ ही गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है- ‘गुरु बिन ज्ञान विवेक न होई, राम कृपा बिन सुलभ न सोई।’ मतलब बिना ईश्वर की कृपा के सद्गुरु मिलना असंभव होता है। बड़े भाग्य वालों को गुरु की प्राप्ति होती है। एकलव्य जैसे निष्ठावान शिष्य व द्रोणाचार्य जैसे गुरु हों तो शिष्य का निश्चित ही कल्याण होता है। देवगुरु ब्रह्मा विष्णु महेश हैं, ऋषि गुरु सप्तऋषि और मानव गुरु शंकराचार्य माने गए हैं। गुरु के सान्निध्य में रहने वाला व्यक्ति संस्कारों से परिपूर्ण हो जाता है। अर्जुन की तरह किंकर्तव्यमूढ़ होकर जब शिष्य खड़ा हो जाता है, तब गुरु भी कृष्ण की तरह उसके मन का भ्रम दूर करके उसे जीवन पथ की ओर अग्रसर करता है। आज के दौर में आधुनिकतम शिक्षा के साथ गुरु की शरण में आकर आध्यात्मिक और नैतिकता की शिक्षा आवश्यक है, ताकि व्यक्ति संस्कारित जीवन जी सके। 

गुरु पूर्णिमा पर गुरु अपनी सारी ज्ञान संपदा शिष्यों को सौंपने के लिए तैयार रहते हैं। सद्गुरु शरीर के आयामों, ऊर्जा तंत्र, सभी चक्र, पांचों प्राण, जिनके साथ आप अपने तंत्र में रूपांतरण ला सकते हैं और मन के सोलह आयामों का अन्वेषण करते हैं। वे परम सौभाग्यशाली हैं जिन्हें गुरु की प्राप्ति हो गई है। आज के दौर का शिक्षा तंत्र व आपकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमियां आपको भीतर की ओर मुड़ने के लिए कोई शिक्षा नहीं देतीं। वे सब आपको बाहरी तौर पर कुछ करना जरूर सिखा रही हैं, लेकिन गुरु की शरण में आते ही हम अपने अंतर में देख सकते हैं और खुद को बदलकर जीवन को सार्थक कर सकते हैं।

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