-ओमप्रकाश मेहता
विश्लेषक
कुछ ही दिनों पहले जिस राजनीति ने न्याय पालिका को सार्वजनिक रूप से आंसू बहाने को मजबूर कर दिया था, आज उसी न्याय पालिका ने राजनीति को रुदन करने को मजबूर कर दिया है, यही नहीं जिस सरकार ने संसद में न्यायालय को सरकार चलाने की तल्ख टिप्पणी की थी आज उसी न्यायालय ने सरकार को सीख दे दी कि सरकार संविधान की दायरे में चलाई जाती है तुच्छ राजनीतिक हथकंड़ों से नहीं?
पिछले दिनों न्यायाधीशों के राष्ट्रीय सम्मेलन में भारत के मुख्य न्यायाधिपति को न्यायाधीशों की नियुक्ति के अभाव में संविधान की भावना के अनुरूप शीघ्र व सस्ता न्याय नहीं दे पाने को लेकर आंसू बहाने को मजबूर होना पड़ा था। प्रधानमंत्री यह सब मौन दर्शक की तरह देख भर रहे थे, उसके बाद भी सरकार ने मुख्य न्यायाधिपति के आंसुओं की कद्र नहीं की और न्यायाधीशों के हजारों पद देश में आज भी रिक्त है।
यद्यपि उस समय इस घटना को कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की संज्ञा दी जा रही थी, उसकी पुष्टि भी तब हो गई जब वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संसद में न्यायालय द्वारा सरकारी कार्यों में हस्तक्षेप का आरोप लगाकर तल्खी भरे शब्दों में कहा था कि बजट बनाना, संसद से पास कराना और करारोपण करना ही अब सरकार का काम रह गया है, बाकी सब न्यायपालिका कर रही है, इसलिए ये दो कार्य भी न्यायपालिका खुद ही अपने हाथों में ले ले। इसी के साथ वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सरकारी कार्यों में न्यायालय के हस्तक्षेप की निंदा भी की थी।
सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री की इस तल्ख भरी टिप्पणी पर उस समय तो न्यायालय चुप रहा, किंतु बाद में उत्तराखंड और अरुणाचल के मामले संविधानपरक फैसला देकर न्यायपालिका ने यह सिद्ध कर दिया कि देश के संविधान का वहीं एकमात्र रक्षक है, उत्तराखंड के मामले में तो केंद्र सरकार की केवल किरकिरी हुई थी, किंतु अरुणाचल के मामले में तो कोर्ट ने यह उजागर कर दिया कि प्रदेशों के राज्यपाल सिर्फ और सिर्फ केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार के एजेंट के रूप में काम करते हैं और जैसा प्रधानमंत्री चाहते हैं, वैसी ही राज्यों के बारे में रिपोर्ट देते हैं, वह भी राज्यपाल के संवैधानिक दायित्वों को ताक में रखकर। न्यायालय ने राज्यपालों को संविधान का पाठ पढ़ाते हुए सीख भी दी।
देश की आजादी के बाद यह पहला मौका है, जब सर्वोच्च न्यायालय को एक राज्य विशेष में गैरकानूनी तरीके से बनी और चल रही सरकार को हटाकर साढ़े सात माह पुरानी स्थिति कायम कर गैर कानूनी तरीके से हटाई पूर्व सरकार को फिर बहाल करने का फैसला सुनाना पड़ा।
यद्यपि इस पूरे मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति पर कोई टिप्पणी नहीं की और राष्ट्रपति के पद की मर्यादा का ध्यान रखा, किंतु देश में यह चर्चा अवश्य है कि पहले अरुणाचल और फिर उत्तराखंड में रातोरात राष्ट्रपति शासन लगाने के परिपत्र पर हस्ताक्षर करने के पहले कानून, राजनीति और संविधान के ज्ञाता राष्ट्रपति ने इन मसलों पर गहन विचार मंथन क्यों नहीं किया? वे चाहते तो इन प्रस्तावों को पुनर्विचार हेतु केंद्र सरकार को लौटा भी सकते थे, किंतु उन्होंने ऐसा नहीं करके सरकार द्वारा उठाए गए कथित गैर संवैधानिक कदमों में सरकार की अपरोक्ष रूप से मदद की। यद्यपि ऐसा कतई नहीं है कि मोदी सरकार ने दो राज्यों की चलती सरकारों को असंवैधानिक तरीकों से रोका और अपने दल की सरकार गठित करने की कोशिश की, कांग्रेस के शासनकाल में भी तत्कालीन सरकार कई बार ऐसा कर चुकी है, किंतु इस बार सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने संविधान की रक्षा और धारा-356 के दुरुपयोग की दिशा में सार्थक कदम उठाया।
यदि इस गैर संवैधानिक चलन को जड़ में जाया जाए, तो इसका एक मात्र कारण केंद्र में सत्तारूढ़ दल की सरकार द्वारा अपने दल की सरकारों की गैर कानूनी कायमी और इसी दृष्टि से गए-गुजरे राजनेताओं की राज्यपालों के पदों पर नियुक्ति ही है। इनमें से कुछ नेता अपनी वफादारी दिखाने के लिए अपने कर्तव्यों, दायित्वों और संवैधानिक मर्यादाओं को ताक में रखकर अपने आकाओं के इशारों पर ऐसे कदम उठा लेते हैं, जो संविधान की भावनाओं को तार-तार करके रख देते हैं। आज यही सब हो रहा है फिर वह चाहे कांग्रेस शासित राज्यों में हो या उत्तरप्रदेश या केंद्र शासित दिल्ली में? क्या अब देश में ऐसी शख्सियतों का अकाल पड़ गया है जो कानून व संविधान की मर्यादा के अनुरूप राज्यपाल जैसे अहम् पद के दायित्वों का निर्वहन कर सकें? किंतु आज तो हालत यह हो गई जो नेता किसी काम की स्थिति में नहीं होता हो, उसे राज्यपाल बना दिया जाता है।
क्या सत्तारूढ़ दल के ऐसे हथकंड़ों से देश का प्रजातंत्र मजबूत हो रहा है? आखिर हमारे माननीयों की कुर्सी और धन की लिप्सा कब खत्म होगी? कब तक ये ऐसे गैर-संवैधानिक कृत्य करते रहेंगे? किंतु अब ऐसा लगता है कि न्यायपालिका ने भी कमर कस ली है, अब वह इन चक्रवर्ती सम्राटों का सपना देखने वालों के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को संविधान को चरने नहीं देगी, जिसका उदाहरण यह सुप्रीम कोर्ट का फैसला है।