-वीना नागपाल
जब-जब समाज में महिलाओं को सम्मान देने के चित्रण की बात होती है तब-तब ऐसा लगता है कि इस मामले में भयानक शून्यता व्याप्त है। जितने भी संचार व मीडिया के माध्यम हैं वह महिलाओं को सम्मान के साथ चित्रण करने में उनके साथ न्याय नहीं करते। वह टीवी का माध्यम हों या फिल्मों का या फिर समाचार पत्रों का और प्रसारित व प्रकाशित वाले विज्ञापनों की बात हो इन सबमें महिलाओं को सम्मान देने की बात तो दूर बल्कि कई बार तो ऐसा लगता है कि उनका एक प्रकार से शोषण हो रहा है। विशेषकर टीवी के कार्यक्रम तथा विज्ञापनों की बात लें तो महिलाओं के साथ खुलकर अन्याय किया जाता है। इनमें प्रदर्शित महिलाओं को लेकर उनका नकारात्मक पक्ष तथा उनका केवल दैहिक प्रदर्शन अधिक ध्वनित होता है।
महिलाओं के लिए संचार के सशक्त माध्यम जैसे टीवी व फिल्मों में बहुत कुछ ऐसा किया जा सकता है जिससे उनके आदर व सम्मान करने का सशक्त संदेश समाज में जाए, पर इसे पूरी तरह उपेक्षित कर दिया गया है। टीवी को ही ले लें, इसमें बहुत सारे चैनल्स तो शामिल हो गए हैं पर, लगभग सभी चैनल्स पर दिखाए जाने वाले सीरियल्स में महिलाएं नकारात्मक भूमिका में ही होती हैं। महिलाएं प्राय: खुड-पेंच करती हुईं व ईर्ष्या व द्वेष से भरी हुई एक दूसरी महिला के ही विरुद्ध खड़ी दिखाई देती है। उनका चित्रण इस प्रकार से किया जाता है मानो महिलाओं के मन में एक-दूसरे की जडें उखाड़ने के अतिरिक्त और कोई विचार आता ही नहीं है। वह बसे-बसाए घर-परिवार को उजाड़ने की विधा में ही माहिर हैं और इसके अलावा उन्हें और कुछ आता ही नहीं है। वह न तो कहीं अचीवर्स हैं अर्थात सफल और काबिल हैं और न ही उन्हें आगे बढ़ना आता है। घर-घर में घुसकर दिखाई देने वाला टीवी का माध्यम महिलाओं का अहित ही कर रहा है और उनके सम्मान व आदर करने का कोई संदेश नहीं देता।
फिल्मों की बात लें तो इसमें भी महिलाओं के दैहिक शोषण का जबरदस्त दुरुपयोग किया जाता है। यहां भी सफल और सशक्त महिलाओं का चित्रण नहीं होता बल्कि सब सीमाओं के पार कम से कम वस्त्र पहने महिलाएं असम्मानित रूप में ही दिखाई जाती हैं। रही-सही कसर अब आयटम सांग्स ने पूरी कर दी है। न कहीं विदुषी महिलाएं हंै और न ही साहसी और निर्भयता से भरपूर महिलाएं इस माध्यम में कहीं दिखाई देती हैं। पिछले दिनों कुछ महिला ओरिएंटेड फिल्में आईं और वह दर्शकों द्वारा बहुत सराही भी गईं। इस तरह की फिल्मों ने उस कुतर्क को नकार दिया कि जो फिल्म निर्माताओं और इस विधा में शामिल लोगों द्वारा अक्सर कहा जाता रहा है कि हम ऐसी फिल्में (महिलाओं को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत करने वाली) इसलिए बनाते हैं क्योंकि दर्शक इन्हें ही पसंद करते हैं। परंतु इस कुतर्क को नकारे जाने के बावजूद महिलाओं की सकारात्मक छवि और उनके प्रति आदर व सम्मान बढ़ाने की बात करने वाली फिल्मों की बाढ़ नहीं आ पाई।
विज्ञापनों ने तो और दो कदम आगे जाकर महिलाओं के आदर व सम्मान का चित्रण करने के स्थान पर उन्हें सेक्स सिंगल बना दिया है। त्वचा निखारती हुई, गौरेपन का क्रीम मलते हुए, साबुन रगड़ते हुए, कृत्रिम बालों को फलां-फलां तेल लगाकर लहराते हुए अर्थात सिर से पैर तक केवल देह ही देह है। मन, बुद्धि, कौशल व योग्यता कहीं दिखाई नहीं देती। ऐसी महिला का चित्रण केवल उसके दैहिक शोषण को ही आमंत्रित करता है। यदि हमें पश्चिम के दुष्परिणामों से बचना है और हमारी संस्कृति की गूंज दूर तक पहुंचानी है, महिलाओं के आदर व सम्मान की स्वीकार्यता स्थापित करना है, तो उनका महिमा मंडन न भी करें तो भी घरेलू से लेकर कामकाजी महिलाओं, युवतियों की सशक्तता और सफलताओं को आदर व सम्मान देने की बातों और घटनाओं का चित्रण किया जाए।
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