25 Apr 2024, 10:35:34 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

प्राय: घर-परिवारों के बुजुर्ग यह कहते सुने जाते हैं कि मेरी तो कोई नहीं सुनता! दरअसल, होता यह है कि वह अपनी सुनाने के इतने आदी होते हैं कि वह अब भी यही चाहते हैं कि उनकी ही बात सुनी जाए। उनके जीवन का वह समय उन्हें प्राय: परेशान करता रहता है कि जब वह कोई बात कहते थे तब उसी बात का पालन होता था और वह यह अपेक्षा भी करते थे कि उनकी बात ही मानी जाए।

उस दौर में उनका निर्णय अंतिम होता था। उस समय उन्होंने अपने मन-मस्तिष्क को इस बात के लिए प्रशिक्षित ही नहीं किया था कि वह किसी और बात को भी सुन लें। इसकी उन्होंने कभी आदत ही नहीं डाली थी। अब जीवन की ढलती उम्र में ऐसा दौर आ जाता है कि जमाना व समय दोनों ही तेजी से बदल चुके होते हैं और अब वह जो अपनी बात सुने जाने के लिए कहते हैं तो कई बार वह बात आउट डेटेड  लगती है या उसका संदर्भ आज के समय में मौजूद नहीं होता। कई बार वह ऐसी बात भी कह देते हैं जो वर्तमान पीढ़ी को कतई मंजूर नहीं होती। ऐसे में जब वह अपनी कही बात का पालन होेते नहीं देखते तो उन्हें लगता है कि उनकी अब कोई नहीं सुनता और सब अपनी मनमर्जी करते हैं। इस बात को लेकर धीरे-धीरे उनके मन में अवसाद भरने लगता है और इसे वह अपनी उपेक्षा मान लेते हैं। एक तो उम्र का तकाजा और उस पर अवसाद का आक्रमण तथा उसके साथ जुड़े नकारात्मक विचारों का जैसे सैलाब ही उमड़ पड़ता है। ऐसे में परिवार का और स्वयं का समय कटाना भी दुश्वार हो जाता है। यह स्थिति जब परिवार में गहन हो जाती है तो परिवार वालों को समझ में नहीं आता कि वह इसे कैसे सुधारें? परिवार के बुजुर्ग तो सम्माननीय हैं, उनको किस प्रकार समझाइश दी जा सकती है। ऐसा लगता है कि इसका समाधान बहुत पहले से ही शुरू कर देना चाहिए। जीवन के युवा व मध्यम काल में ही किसी अन्य की बात को भी सुनने की आदत बना लेना चाहिए। अक्सर लोग अपनी बात कहने में तो बहुत दिलचस्पी लेते हैं, पर दूसरों की बात सुनने के समय अनमने होने का भाव चेहरे पर चस्पा कर लेते हैं। ऐसे आत्मकेन्द्रित व्यक्ति परिवार में भी अपनी कही हुई बात को पत्थर की लकीर की तरह मानते हैं। मजाल कि कोई इस लकीर को आगे-पीछे करने का दु:साहस भी कर दे। यह भी होता है कि इन्हें अपने कहे शब्दों की गंूज सुनना ही प्रिय होता है और इसलिए जब इस गूंज का प्रभाव देखते हैं तो उन्हें आत्मसंतोष मिलता है। यह स्थिति उम्र ढलने के दौर में बनी नहीं रह सकती। इस उम्र में तो परिवार के अन्य सदस्य भी वयस्क हो चुके होते हैं और उनकी भी अपनी निर्धारित सोच निर्मित हो चुकी होती है। यदि परिवार और अपने अन्य जनों के साथ प्रेम का तथा परस्पर आदर व सम्मान का संबंध बनाए रखना है तो सुनें ज्याद व बोलें कम। हालांकि इसके लिए तैयारी तो पहले से ही शुरू हो जाना चाहिए पर कोई बात नहीं, यदि अब भी इसमें स्वयं को ढाल लिया तो बहुत सुखी हो सकते हैं और नैराश्य के इस अवसाद से मुक्ति मिल जाएगी जो इस बात से उपजता है कि मेरी तो कोई नहीं सुनता।

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