-दुर्गेश गौर
आर्थिक मामलों के जानकार
मुश्किलों को आसान बनाने के लिए मिलना और फिर नई मुश्किलों से पीछा छुड़ाने के लिए अलग हो जाना हमारे मानव स्वभाव का एक विचित्र पर महत्वपूर्ण अंग है। वर्ष 1973 में एडवर्ड हीथ के नेतृत्व में ब्रिटेन द्वारा अपनी आर्थिक कठिनाइयों को आसान बनाने के लिए यूरो यूनियन में शामिल होना और पिछले शनिवार अपनी राजनैतिक कठिनाइयों के चलते 28 देशों के 43 साल पुराने इस गठबंधन से बाहर निकल जाना, इस बात का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस बार लहरों की सवारी करने वाले अंग्रेज, जो एक कहावत के अनुसार दस कदम आगे बढ़ाने के लिए दो कदम पीछे आना पंसद करते हैं, समझ नहीं पा रहे हैं कि हाल में जनमत संग्रह द्वारा यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने का कदम उन्हें भविष्य में कहां लेकर जाएगा। साथ ही यह अदांजा लगाना ही कठिन है कि अमेरिकन सबप्राइम संकट व यूरो ऋण संकट के बाद से डूबती-उभरती वैश्विक अर्थव्यवस्था का भविष्य क्या होगा। क्या वह बे्रक्जिट के बाद फिर जा रहे डेमेज कंट्रोल से सुधार की तरफ जाएगी अथवा फ्रांस, इटली, डेनमार्क, ग्रीस, स्वीडन, नीदरलैंड आदि अन्य सदस्य देशों के दक्षिण पंथी दलों द्वारा यूरो यूनियन से अलग होने की मांग के चलते, यूरो यूनियन के विखंडन की आशंकाओं से और अधिक उलझ जाएगी।
वर्तमान में ब्रेक्जिट के बाद से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर इसका तात्कालिक प्रभाव देखा जा रहा है। ब्रिटिश मुद्रा पौंड स्टरलिंग 12 प्रतिशत की गिरावट के साथ अमेरिका डॉलर के खिलाफ अपने 31 वर्षों के निचले स्तर पर है। दुनियाभर के पूंजी बाजारों में गिरावट का रुख देखा जा रहा है। अमेरिकी, जर्मन, जापान आदि विकसित देशों के पौंड जैसी सुरक्षित प्रतिभूतियों के प्रति निवेशकों का रुझान बढ़ा है। दुनिया एक बार फिर कम ब्याज दरों वाले दौर में प्रवेश कर रही है।
बहरहाल, ब्रेक्जिट का सबसे ज्यादा प्रभाव ब्रिटेन पर देखा जा रहा है। जहां पौंड के मूल्य में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज की गई है, वहीं वाल्कन देशों व पोलैंड से आने वाली सस्ती वर्थफोर्स की मुक्त आवाजाही पर आगामी रोक ब्रिटिश उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव बनाएगी। परिणामस्वरूप ब्रिटेन से पूंजी का संभावित बहिर्गमन पौंड पर अतिरिक्त दबाव बनाते हुए सरकारी राजस्व पर भी उल्टा असर दिखाएगा। जहां एक ओर अब ब्रिटेन अपने घरेलू उद्योग-धंधों को बचाने के लिए आयात पर कर लगा सकेगा, वहीं दूसरी ओर उसे भी यूरो संघ द्वारा निर्यात पर विभिन्न करों का सामना करना होगा।
ब्रेक्जिट के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था का जायजा लेने पर हमें इसके पीछे जुडे प्रभाव देखने को मिलते हैं। शेयर बाजारों एवं रुपए के मूल्य में आकस्मिक गिरावट के बाद इनमें सुधार देखा गयाा, वहीं सरकारी बॉण्डों पर इसका प्रभाव नगण्य रहा, उल्टा बॉण्ड प्रतिफल में गिरावट देखी गई जो कि बॉण्ड कीमतों में सुधार की परिचायक होती है। डॉलर के खिलाफ रुपए की घटती कीमत कच्चे तेल के आयात की महंगा करती हुई चालू खाते पर दबाव बना सकती है। सब्सिडी में बढ़त के साथ राजकोषीय घाटे पर भी भारी हो सकती है, परंतु वैश्विक अर्थव्यवस्था से निवेशकों का भरोसा डगमगाने से कच्चे तेल एवं अन्य औद्योगिक जिंसों की कीमतें दबाव में हैं। परिणामस्वरूप रुपए की कीमतों जो तात्कालिक गिरावट के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजारों में जिंसों की घटी कीमत हमारे लिए मददगार साबित हो सकती है, वहीं निर्यात के दृष्टिकोण से रुपए में गिरावट एक शुभ संकेत है, जो कि हमारे निर्यातकों का प्रतियोगी क्षमता में सुधार करती है। वह भी तब, जब अन्य प्रतियोगी मुद्राओं की कीमतें भी डॉलर के अनुपात में गिरावट पर हैं, परंतु लंबे समय से गिरती निर्यात विकास दर के बीच ब्रेक्जिट का झटका भारतीय निर्यातकों के लिए कष्टकारक हो सकता है।
बहरहाल, बाहरी दबाव के दौर में अच्छी स्थिति में नजर आ रही भारतीय अर्थव्यवस्था को अपनी भीतरी मजबूती पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। विपक्ष को सहयोगी बनाते हुए जीएसटी जैसे महत्वपूर्ण बिल को पास कराना चाहिए व अटकी परियोजनाओं को गति प्रदान कर आधारभूत ढांचे को मजबूत बनाना चाहिए। बैंकों के फंसे ऋणों की समस्या से उभरते हुए देश को निवेशानुकूल बनाना चाहिए। बड़ा सवाल यह है कि जब बुरे दिनों में अमेरिका जैसे देशों की मुद्रा एवं बॉण्ड सुरक्षित निवेश का केंद्र हो सकते हैं, तो मजबूती से आगे बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था एक और विकल्प क्यूं नहीं हो सकता।