-वीना नागपाल
कामकाजी महिलाएं ऊपर से जितनी आत्मविश्वास से भरी दिखती हैं उतना वह शायद अपने आप में महसूस नहीं करतीं। इसका बहुत बड़ा कारण यह है कि उन्हें बार-बार इस बात के लिए चेताया जाता है कि जैसे वह घर-परिवार और विशेषकर अपने बच्चों पर उतना ध्यान नहीं देतीं जितना कि उन्हें देना चाहिए। ऐसा क्यों है कि मां पर ही यह आक्षेप लगाया जाता है। उसका कामकाजी होना कोई अपराध तो नहीं है, जिसके लिए उसे कठघरे में खड़ा किया जाए। बच्चे की थोड़ी सी भी कमजोरी (फिर वह चाहे पोषण संबंधी शारीरिक स्तर पर हो) को लेकर कई बार उसकी ही जिम्मेदारी पर बातें बनाई जाती हैं। पिता भी तो काम पर जाते हैं पर, उनसे कभी यह नहीं पूछा जाता कि वह कैसा पिता है जो अपने कार्य की व्यस्तता के कारण बच्चों की उपेक्षा कर रहा है।
पिता के फर्ज को लेकर सवाल नहीं उठाए जाते, जबकि ‘मां’ पर यह तंज कसा जाता है कि- तुम कैसी मां हो जो अपने कामकाज के कारण बच्चों का ख्याल नहीं रख रही। जबकि होता यह है कि अपने कामकाज में अति व्यस्त होने के बावजूद मां हमेशा अपने बच्चों के साथ समय बिता ही लेती है। यह उसका उनके साथ बिताया गया क्वालिटी टाइम अर्थात गुणात्मक समय होता है जिसके परिणाम उतने ही अच्छे निकल सकते हैं जितने कि एक घर में सारा दिन समय देने वाली मां द्वारा प्रस्तुत होते हैं। दरअसल यह सारी समस्या इस कारण सिर उठाती है कि महिलाओं व पुरुषों को खांचे में डालने की बात से अभी तक समाज उबर नहीं पाया है। महिलाएं घर संभालेंगी व बच्चे देखेंगीं। पुरुष बाहर जाएंगे और धन अर्जित करेंगे। यह किस युग की बात है और किसने ऐसा बंटवारा किया पता नहीं, परंतु एक बात सत्य है कि मानव व्यवहार में किसी भी प्रकार का विभाजन (बंटवारा) अधिक समय तक नहीं चल सकता। उसका समय तक नहीं चल सकता। उसका कारण यह है कि दो मानवों के बुद्धिमान और विवेकशील होने के कारण कोई भी सीमा में अधिक देर तक बंधकर रहना कभी स्वीकार नहीं करेगा। महिलाओं ने भी अपने लिए निर्धारित स्थिति में उबरने की निरंतर कोशिश करके आज वह मुकाम पाया है जिसमें वह भी अपनी आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्वतंत्रता को प्राप्त कर रही हैं।
ऐसे में केवल पुरुष ही इस सत्य से समझौता नहीं कर पा रहा है कि दोनों ही आर्थिक पायदान पर समान रूप से और एक साथ खड़े हैं। मां बनकर और साथ ही कामकाजी बनकर यदि महिला दोनों जिम्मेदारियां उठा रही है तो पुरुष भी कामकाजी होकर और पिता के रूप में अपनी पूरी-पूरी जिम्मेदारी निभाएं। यदि इस प्रकार सामंजस्य स्थापति हो जाए तो केवल महिलाओं को कठघरे में खड़ा होना नहीं पड़ेगा। पिताओं से भी तब यह प्रश्न पूछा जाएगा कि तुम कैसे पिता हो जो बच्चे की परवरिश में योगदान नहीं दे रहे तथा अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे। यदि इन प्रश्नों के कठघरे ही बनाना है तो एक नहीं बल्कि दोनों को इसमें खड़ा करें।
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