-चिन्मय मिश्र
-समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।
भारत की भाजपा सरकार द्वारा देश के प्रत्येक क्षेत्र में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की स्वीकृति और अभी तक लागू नियम, कि 30 प्रतिशत आपूर्ति स्थानीय निर्माण से होगी, को समाप्त कर देने से भारत की आजादी के संघर्ष के दौरान देखे गए सपने को चिरनिद्रा में पहुंचा दिया गया है। अपनी इस असाधारण नीति को मूर्तरूप देते समय उन्हें यह ध्यान में नहीं आया कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र इसरो ने स्वदेशी तकनीक का प्रयोग कर सारी दुनिया में तहलका मचा दिया है। दुनिया की सबसे संवेदनशील तकनीक के प्रयोग में स्थानीय संसाधनों और कुशलता से महारत हासिल कर पाना भी भारतीय नीति निर्माताओं के गले नहीं उतर पाया। उन्हें तो अब इतना भी भरोसा नहीं रह गया है कि हम भारतीय लोग सब्जी-भाजी का व्यापार भी ठीक से कर सकते हैं। इसलिए वालमार्ट से सब्जी बिकवाई जाएगी। वैसे अंबानी वगैरह भी सब्जी बेच रहे हैं। लेकिन उन्हें भी इसमें पारंगत होने में थोड़ा समय है।
अतएव सड़क किनारे पत्थर के टुकड़ों से बांट बनाकर और तौलकर बेचने वाले को इसे बेचने का हक नहीं है। इसके अलावा उस सब्जी विक्रेता की ईमानदारी पत्थर के बाट के बावजूद पर शक न करने वाले ग्राहक को भी तो सजा देना जरुरी है। बहरहाल समय का एक चक्र पूरा हो गया। हॉलैंड और ब्रिटेन में सन् 1700 ईस्वी के आसपास ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई और उसने विश्वव्यापी व्यापार प्रारंभ कर दिया। इनके व्यापार का चमत्कार देखिए कि भारत को पहली बार अपनी स्वतंत्रता बचाने के लिए सन् 1757 में प्लासी का पहला युद्ध लड़ना पड़ा और इसमें हमारी हार हुई । धीरे-धीरे हमारा देश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ में चला गया और भारत में कंपनी राज स्थापित हो गया। इसके ठीक 100 वर्ष बाद त सन् 1857 में भारत का पहला महान स्वतंत्रता संघर्ष हुआ। भारत की इसमें भी हार हुई और ईस्ट इंडिया कंपनी ने सन् 1858 में 40 करोड़ पौंड में भारत को ब्रिटेन को बेच दिया या हस्तांतरित कर दिया। इस तरह भारत में कंपनी राज तो खत्म हो गया परंतु हम ब्रिटिश उपनिवेश बन गए। इसके 90 वर्ष बाद स्वदेशी व स्वावलंबन की भावना के साथ 15 अगस्त सन् 1947 को हम आजाद हुए। परंतु आजादी के बाद 70 वर्षों में ही हम अपने सामने खडे अवरोधों से हार मान कर एक बार पुन: हमने आत्मसमर्पण कर दिया और आजादी के 190 सालों के संघर्ष पर पानी फेर दिया। अपने देश पर भरोसा न कर हमने विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को अपनाकर यह घोषणा कर दी कि अब हम दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्था बन गए हैं अमेरिका से भी ज्यादा।
हम सभी जानते हैं कि अमेरिका को कौन चलाता है अतएव हमें यह स्वीकार करने में बिल्कुल भी संकोच नहीं करना चाहिए कि अब वैसे तो एपल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी कुक के भारत दौरे के दौरान ही इस नीति पर संभवत: स्वीकृति बन चुकी थी। परंतु सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन के खिलाफ विषवमन और तदुपरांत राजन द्वारा दूसरा कार्यकाल न लेने की घोषणा से फैली अफरातफरी ने भारत की आर्थिक गुलामी को जल्दी ही ला दिया। इसके लिए वैश्विक कॉरपोरेट और ऋण न चुकाने वाले भारतीय स्वामी की आरती गा रहे होंगे। यह तो इतिहास में दर्ज है कि आर एस एस और इसके अधिकांश समर्थकों की भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कतई कोई भागीदारी नहीं थी। परंतु आजादी के बाद से ही वे स्वदेशी और स्वाबलंबन की दुहाई देते रहे हैं। गांधी जी कहते थे ‘‘मेरे सपनों के स्वराज्य में जाति या धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों और धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा।
यह स्वराज्य सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, किंतु लूले-लंगडे़, अंधे और भूख से मरने वाले लाखों- करोड़ोंं मेहनतकश मजदूर भी अवश्य आते हैं। इतना ही हम इतिहास के सबसे विरोधाभासी समय में रह रहे हैं। गौर करिए विश्व के सबसे बड़े दानदाता कहलाने वाले बिल और मिलिंडा गेट्स इस समय अपने दान कार्यक्रम के साथ-साथ दुनिया की पूरी पारंपरिक बीज संपदा को अपने अधिकार में ले रहे हैं। प्रशांत भूषण ने ठीक ही कहा है, प्रधानमंत्री के दो चेहरे हैं। जब वे विपक्ष में थे और मुख्यमंत्री थे तो एफ डीर् आइ का विरोध किया था, लेकिन सत्ता में बतौर पी एम इसका समर्थन शुरू कर दिया। भारत को विदेशियों के हाथों बेचने की शुरूआत। यह भी मजेदार है कि इतनी महत्वपूर्ण घोषणा के बाद प्रधानमंत्री तुरंत ताशकंद रवाना हो गए और वित्तमंत्री चीन। चुनाव के दौरान किए गए वायदों से पलटने पर भाजपा व उनके साथियों जिनमें उनका पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी शामिल है, को कोई ऐतराज नहीं है। सुब्रह्मण्यम स्वामी को रघुराम राजन और अरविंद को सुब्रह्मण्यम से तकलीफ है लेकिन नीति आयोग के अध्यक्ष पनगढ़िया से कोई तकलीफ नहीं। सरकार की इस नीतिगत घोषणा ने सिद्ध कर दिया कि अब लोकतंत्र की गुंजाइश या जरुरत समाप्त हो गई है क्योंकि सत्ता किन्ही अन्य माध्यमों के हाथ पहुंच चुकी है। अब नीतियां संसद में नहीं बल्कि कहीं और बन रही हैं और लागू भी हो रही है और बहुमत के बावजूद भाजपा इन पर संसद को मुहर लगवाने का कष्ट तक नहीं करना चाहती। चीन की वर्तमान स्थिति को देखिए और अंदर तब आती है जब अर्थव्यवस्था में उछाल रहता है, जिससे मुद्रास्फीती बढ़ती है।
इसका सीधा सा अर्थ है कि प्रत्येक स्थिति में विदेशी पूंजी निवेश जोखिम का काम है। उपभोक्तावादी संस्कृति की वकालत करने वालों के सामने अब कोई दलील काम नहीं करती। अपने मद में चूर नीति निर्माता देश की नहीं अर्थव्यवस्था यानी बाजार की फिक्र करते हैं। चूंकि बाजार की न तो कोई परिभाषा है और न की सीमा अतएव उनका हर कार्य ‘‘जनहित’’ में ही होता है। हम तो अब भी स्वयं की नियति से अनजान बने हैं हुए हैं।