- आर.के.सिन्हा
- लेखक राज्य सभा सदस्य हैं।
शायद ही किसी देश में भारत से अधिक रणभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान देने वाले वीरों का अपमान होता हो। इस लिहाज से हम किस हदतक संवेदनहीन हो गए है, इसका एक ताजा उदाहरण ले लीजिए। जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले में सीआरपीएफ की बस पर आतंकियों ने हमला, किया जिसमें 8 जवान शहीद हो गए। शहीद हुए एक जवान का नाम वीर सिंह था। वे सचमुच में एक ‘वीर’ कांस्टेबल थे। उनका पार्थिव शरीर उनके उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले के गांव में अंतिम संस्कार के लिए लाया जाता है। पर आप यकीन नहीं मानेंगे कि गांव के कुछ कथित ऊंची जाति के दंबगों ने कांस्टेबल वीर सिंह की अंत्येष्टि में अवरोध खड़े करने शुरू कर दिए। वे किसी भी हालत में कांस्टेबल वीर सिंह की अंत्येष्टि एक सार्वजनिक स्थान पर नहीं होने दे रहे थे। इस विरोध के मूल में वजह वीर सिंह का कथित निचली जाति से संबंध रखना था। इस उदाहरण को पढ़कर हरेक राष्ट्र भक्त की आंखें नम हो जाएंगी। क्या भारत में कठिन हालातों में सरहद की रखवाली करने वालों और शत्रु के दांत खट्टे करते हुए जीवन दान देने वालों का इस तरह से घोर अपमान होगा ?
सच्ची बात ये है कि हम अपने शहीदों का सम्मान और उनका स्मरण करने के स्तर पर खासे कमजोर ही रहे हैं। देश की आजादी के बाद हमने कई युद्ध लड़े। उन युद्धों में हजारों जवान शहीद हुए। और देश आज तक उनका एक शहीद स्मारक तक नहीं बना सका है। पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के शहीदों कि स्मृति में इंडिया गेट शान से जरुर खड़ा है। अब कहीं जाकर एनडीए सरकार ने एक युद्ध स्मारक बनाने का निर्णय लिया है। दरअसल चीन के साथ 1962 में जंग के बाद ही पहली बार शहीदों की याद में युद्ध स्मारक बनाने की मांग हुई थी। और उसके बाद बार-बार युद्ध स्मारक की मांग उठती रही। अब जाकर केंद्र सरकार ने आखिरकार एक राष्ट्रीय स्मारक और युद्ध संग्रहालय के निर्माण को मंजूरी प्रदान कर दी है। राजधानी में यह स्मारक इंडिया गेट के पास प्रिसिंस पार्क में बनेगा। आजादी के बाद देश की सेना ने चीन और पाकिस्तान के खिलाफ भयंकर युद्ध लड़ें। 1987 से 1990 तक श्रीलंका में आॅपरेशन पवन के दौरान भारतीय शांति सेना के शौर्य को भी नहीं भुलाया जा सकता है। 1948 में1,110 जवान, 1962 में 3,250 जवान, 1965 में 364 जवान, श्रीलंका में 1,157 जवान और कारगिल में 1999 में हुई जंग में 522 जवान शहीद हुए। ऐसे अर्धसैनिक बलों के जवानों की संख्या भी कम नहीं है जो अलगाववादियों के हौसलों को पस्त करते हुए शहीद हुए।
कांस्टेबल वीर सिंह भी उन्हीं वीरों की श्रेणी में आते हैं। पर बदले में इन वीरों को देश से मिल क्या? सिर्फ बेरुखी! साल 2014 के लोकसभा चुनावों की कैंपेन के दौरान नरेंद्र मोदी ने बार-बार युद्ध स्मारक के निर्माण करने का देश से वादा किया था। सत्तासीन होते ही नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने युद्ध स्मारक के निर्माण को मंजूरी दे दी। चलिए अब कम से कम युद्ध स्मारक तो बन ही जाएगा। अफसोस कि हमारे यहां ‘युद्ध’ के बाद शहीदों की कुर्बानी भुला दी जाती है। सिर्फ करीबी रिश्तेदार और दोस्त ही उन्हें याद करते हैं। अपने योद्धाओं को याद करने के लिए हम एक राष्ट्रीय युद्ध स्मारक तक नहीं बना सके। इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है। अलबत्ता, इस मसले को लेकर बातें और वादें खूब होती हैं।और अब तो पाठ्यपुस्तकों में विभिन्न जंगों के नायकों की वीर गाथा का वर्णन करने वाले अध्याय तक पूर्ववर्ती सरकारों ने गायब कर दिए हैं। हां,गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस के मौके पर जवानों को याद करने की रस्म अदायगी भर हम जरूर कर लेते हैं।
और अब सेना के प्रति सम्मान का भाव रखना तो दूर, उन्हें अब खलनायक के रूप में पेश किया जाने लगा है। मेरे एक मित्र बता रहे थे कि हाल ही में लुधियाना के मुख्य चौराहे पर 1971 की जंग के नायक शहीद फ्लाइंग आॅफिसर निर्मलजीत सिंह सेंखो की आदमकद मूर्ति के नीचे लगी पट्टिका को उखाड़ दिया गया। लुधियाना सेखों का गृहनगर है और 1971 की जंग में अदम्य साहस के लिए मरणोप्रांत परमवीर चक्र से नवाजा गया था। इस तरह के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। मैं कुछ समय पहले सिंगापुर में था। वहां के वार मेमोरियल में जाने का भी मौका मिला। ये देखकर सच में बहुत अच्छा लगा कि उसमें उन भारतीय सेना के उन रेजीमेंटों की विस्तार से चर्चा की गई है, जिन्होंने दूसरे विश्व युद्ध में सिंगापुर को जापानी सेनाओं के हमले से बचाया था। अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध में शहीद भारतीय सैनिकों के नाम इंडिया गेट में लिखवाए। यानी पराए हमारे शौर्य का सम्मान कर रहे हैं और हम आज तक युद्ध स्मारक नहीं बना सके। और हमने सीआरपीएफ के कांस्टेबल वीर सिंह की शहादत का जिस तरह से अपनाम किया है, उसका दूसरा उदाहरण दुनिया के किसी भी भाग में मिले तो बताना।