24 Apr 2024, 11:16:29 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-विष्णुगुप्त
-विश्लेषक


पिछले सप्ताह ही गोविंदाचार्य और लक्ष्मीनारायण भाला की विशेष उपस्थिति में भोपाल की एक संस्था नवलय अनुबोध द्वारा ऐसिड एटैक के खिलाफ एक मार्मिक नाटक खेला गया था, नाटक देखकर लोगों के आखों में आंसू आ गए थे। नाटक ने यह अहसास कराया था कि एसिड पीड़िता का जीवन किस प्रकार से नर्क में तब्दील हो जाता है, एक एसिड पीड़िता किस प्रकार की अनवरत पीड़ा व अवसाद से गुजरती है। नाटक देखकर मुझे यह अहसास हुआ कि भोपाल जैसे शहरों के लोग इस अमानवीय व वीभत्स समस्या पर गंभीर हैं और अभियानरत हैं, पर यह धारणा इतनी जल्द टूट जाएगी, बिखर जाएगी, इसकी कल्पना तक नहीं की थी।

यह समाचार सुनना ही पीड़ादायक था कि भोपाल की एक नामी सड़क पर एक शिक्षिका पर एसिड अटैक हुआ है। यह सही है कि एसिड अटैक की घटना सिर्फ भोपाल शहर में ही नहीं होती है, बल्कि देश के अन्य बड़े शहरों में भी होती है, देश के दूरदराज के क्षेत्रों में भी होती है। एसिड अटैक सिर्फ कानून व्यवस्था की ही समस्या नहीं है, यह सिर्फ आपराधिक मामला नहीं है, बल्कि एसिड अटैक तो एक ऐसी मानसिकता है जो कभी कानून को नहीं तोड़ने वालों और अपराध से दूर-दूर तक रिश्ता नहीं रखने वालों पर भी सवार हो जाती है और हसंती-खेलती व सपनों में तैरती जिंदगी को तबाह करने के कारण बन जाती है। इस मानसिकता से हम सिर्फ कानून, पुलिस और न्यायालय के माध्यम से नहीं लड़ सकते हैं। क्या यह सही नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश, पुलिस की थोड़ी-बहुत तत्परता, जन जागरुकता के माध्यमों की सक्रियता के बाद भी ऐसी घटनाएं घट रही हैं? समाज और परिवार जब तक संस्कारित नहीं होगा, ऐसी विकट और अमानवीय समस्या के खिलाफ परिवार और समाज सक्रिय नहीं होगा तब तक हम एसिड अटैक जैसी वीभत्स घटना पर रोक लगने की उम्मीद तक नहीं कर सकते हैं?

अब देरी खतरनाक है। सरकार को कोई एक नहीं बल्कि कई बड़े कदम उठाने होंगे। ये कदम क्या होंगे? कुछ सुझाव है जो यहां उल्लेखित किया जा रहा है। पहला कदम एसिड अटैक कानून को कड़ा करना, दूसरा उम्र कैद से लेकर फांसी तक की सजा की व्यवस्था करना, तीसरा आरोपित की संपत्ति जब्त करना, चौथा एसिड व्रिकेताओं के लिए भी कड़ी सजा की व्यवस्था करना, पाचवां पुलिस की जिम्मेदारी तय करना, छठा पीड़िता के बेहतर इलाज का सारा खर्च वहन करना, सातवां पीड़िता को जीविका पालन करने के लिए सरकारी नौकरी देना, आठवां मुकदमे की सुनवाई की समय सीमा तय करना, नौवां सजा के लिए विशेष अदालतें गठिन करना और दसवां जन जागरूकता अभियान चलाना। एक लोकतांत्रिक सरकार से ये दस कदम अपेक्षित हैं। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि लोकतांत्रिक सरकार तो जन की होती है, पर जन के खिलाफ भी लोकतांत्रिक सरकारें काम करती हैं। जब तक समस्या गंभीर नहीं होती है, जन उबाल नहीं उठता है तब तक लोकतांत्रिक सरकारें सजग व सक्रिय भी नहीं होती है। निर्भया प्रसंग इसका उदाहरण है। निर्भया प्रकरण ने सरकार को चौंकाया था और जन जागरूकता को गति दिया था।
वर्तमान दौर में भारतीय समाज पतनशीलता के कगार पर खड़ा है। जब कोई समाज पतनशीलता के कगार पर खड़ा होता है, तब उसे नैतिक-अनैतिक में अंतर कहां दिखता है, सभ्य और असभ्य में उसे अंतर कहां दिखता है, मानवीयता और अमानवीयता में उसे अंतर कहां दिखता है। उसका लक्ष्य तो सभी मानकों को तोड़कर वह सब-कुछ पाने की इच्छा रखना है जिसका वह इच्छार्थी होता है। भोपाल में शिक्षिका पर एसिड अटैक का ही प्रकरण देख लीजिए। एसिड अटैक का आरोपी पीड़िता की बहन का जेठ निकला। आरोपी पहले से ही शादीशुदा था। वह मनोरोगी नहीं था पर वह मनोरोगी की तरह पीड़िता के खिलाफ हिंसक था। पीड़िता को पाने के लिए एसिड अटैक पर उतर आया। आरोपी ने यह सोचने-समझने की जरूरत तक नहीं समझी कि एसिड अटैक से पीड़िता का जीवन किस प्रकार से नर्क में बदल जाएगा, उसकी हंसती, खेलती जिंदगी तबाह हो जाएगी। उसने यह भी सोचने-समझने की कोशिश नहीं कि कि कानून के हाथ लंबे होते हैं, आधुनिक युग में प्रचार तकनीकी की उपलब्धता से अपराधी का बचना मुश्किल होता है। अगर वह यह सोचता-समझता तो फिर वह एसिड अटैक पर उतरता ही नहीं। एक तरफा प्यार में पागल होने की जगह वह अपनी पत्नी का जीवन और अपने परिवार की बदनामी पर सोचता। पीड़िता की जिंदगी तो तबाह हुई ही है, इसके अलावा आरोपी की पत्नी का भी जीवन संकटमय हुआ है। आरोपी शादीशुदा था। आरोपी अब जेल में रहेगा और उसकी पत्नी भी जब तक आरोपी जेल में रहेगा तब तक संघर्ष करेगी।

सबसे बड़ी बात सोच बदलने की है। भारतीय समाज फिर भी सोच बदलने के लिए तैयार है, यह कहना मुश्किल है। भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। सिर्फ भारतीय समाज ही नहीं बल्कि दुनिया का हर समाज पुरुष प्रधान है। दुनिया के हर देश में और दुनिया के हर समाज में महिलाओं के प्रति हिंसा होती है, पुरुष प्रधान मानसिकताएं महिलाओं पर कहर बन कर टूटती हैं। कुछ हद तक पुरुष प्रधान मानसिकता दबी हैं, कमजोर हुई हैं। ऐसा लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण संभव हुआ है। अभी  भी पुरुष प्रधान मानसिकता महिलाओं को गुलाम के तौर पर देखने-समझने की समाप्त नहीं हुई है। पुरुषवादी समाज व्यवस्था पर प्रहार जरूरी है। इन्हें अहसास दिलाने और भय दिखाने की जरूरत है कि प्यार का अर्थ यह नहीं कि आप किसी लड़की-महिला की जिंदगी बर्बाद कर देंगे। कभी-कभी यह देखा जाता है कि पुलिस अपराधी के खिलाफ जानबूझकर सबूत नहीं जुटाती है, इस कारण अपराधी सजा से बाहर निकल आता है। फिर भी जागरूकता और समाज में आदर्श व नैतिकता लाए बिना एसिड अटैक जैसी वीभत्स घटना रुकने वाली नहीं है।

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