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पंजाब, कमलनाथ, कांग्रेस और राष्ट्रीय दायित्व

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jun 18 2016 11:06AM | Updated Date: Jun 18 2016 11:06AM
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-अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक


बिना शक 1984 में दिल्ली व देश के अन्य भागों में इंदिरा गांधी की जघन्य हत्या के बाद राष्ट्रभक्त सिखों के विरुद्ध जो जंगी उन्माद पैदा हुआ था, उसमें इस पार्टी के कुछ नेताओं की भूमिका थी, किंतु कांग्रेस के ही कद्दावर नेता कमलनाथ को उनके साथ खड़ा करना पूरी तरह अन्यायपूर्ण और सच से आंखें मूंदने की तरह है, क्योंकि उन पर इन घटनाओं की जांच के लिए गठित किसी भी जांच आयोग या समिति ने शक तक की अंगुली नहीं उठाई है। उन्हें कांग्रेस द्वारा पंजाब व हरियाणा राज्य का प्रभारी महासचिव बना देने के बाद जिस प्रकार आम आदमी पार्टी बौखला रही है उसी से जाहिर होता है कि पंजाब के चुनावों पर कमलनाथ का कितना प्रभाव पड़ सकता है। आप के नेता झुंझलाहट में न्यायपालिका के निष्कर्षों को ही पक्षपातपूर्ण बताकर अपनी अराजक प्रवृत्ति का खुला परिचय देने से नहीं चूक रहे हैं। अत: चुनावों से पहले ही यह डर बताता है कि पंजाब में राजनीति के समीकरणों का उलट-पलट होना स्वाभाविक है परंतु किसी भी दल को न्यायिक व्यवस्था की अवमानना करने की हद तक नहीं जाना चाहिए। हम देख चुके हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों में गुजरात दंगों को लेकर भाजपा को घेरने की कोशिशें किस तरह आम जनता ने दरकिनार कर दी थीं। इसके साथ ही राजनीति में कौन पार्टी किस नेता को अपना ‘धनुर्धर’ नियुक्त करती है यह उसका विशेषाधिकार होता है, मगर यह भी हकीकत है कि पंजाब की राजनीति को हम किसी भी तौर पर इतिहास के गड़े मुर्दों का गुलाम नहीं बना सकते हैं। इस राज्य को आगे बढ़ना ही होगा और अपना पुराना गौरव हासिल करना ही होगा। जरा गौर कीजिए आज पंजाब में कांग्रेस की कमान संभाले हुए कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने अमृतसर के हरमंदिर साहिब में हुए आॅपरेशन ब्लू स्टार के बाद कांग्रेस से इस्तीफा देकर अकाली दल की सदस्यता प्राप्त कर ली थी, यह उस समय के पंजाब की धड़कन थी किंतु वही कैप्टन साहब पुन: कांग्रेस में आ गए और इस पार्टी की तरफ से राज्य के मुख्यमंत्री भी बने। यह ऐसी मिसाल है जो दिखाती है कि पंजाबी कभी भी अतीत के गुलाम बन कर नहीं रहते और वह हमेशा ही समय के साथ कदमताल करते हुए आगे की तरफ देखते हैं। इस राज्य का इतिहास ऐसी ही रोमांचकारी घटनाओं से भरा पड़ा है।

यही राज्य है जिसने स्व. सरदार प्रतापसिंह कैरो के नेतृत्व में पूरे देश में हरित क्रांति की नींव डाली। यही वह राज्य है जिसको 1963 में ही पूरे भारत का ‘यूरोप’ कहलाने का गौरव हासिल हुआ क्योंकि इसके प्रत्येक गांव में बिजली और हर जिले में तकनीकी प्रशिक्षण संस्थान खोल दिए गए थे और पूरे राज्य का जबर्दस्त औद्योगीकरण हो रहा था परंतु यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि पूरे देश में पंजाब ही एकमात्र ऐसा राज्य रहा है जिसके लोगों ने सबसे पहले किसी भी नई चीज को पकड़ा है। फौज से लेकर खेतों तक इस राज्य के लोगों ने जो काम किया है उसका विवरण तो मैं कई बार दे चुका हूं किंतु राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने और भारत के ‘भूमंडलीकरण’ का हिस्सा बनने में भी पंजाबियों खासकर सिखों का विशिष्ट योगदान रहा है। यह अजूबा नहीं है कि कनाडा देश का रक्षामंत्री आज एक भारत मूल के सिख परिवार का सिख राजनीतिज्ञ है। अत: सिखों को कोई भी राजनीतिक दल पीछे बांध कर नहीं रख सकता। 1984 के सिख दंगे भारतीय इतिहास पर कलंक हैं और वे सदा ही रहेंगे, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम उस त्रासदी से ही चिपक कर बैठ जाएं और उसकी हर साल बरसी मनाते रहें और उसके साए में सभी राजनीतिक विरोधियों को लाने की कोशिश करते रहें। आम आदमी पार्टी के नेता यदि यह सोच रहे हैं कि सिख दंगों के नाम पर वे पंजाब में वरीयता पा सकते हैं तो यह खुशफहमी है। यह राज्य पाकिस्तान की सीमा से लगता है और यहां के लोग अपने राष्ट्रीय दायित्व को भली-भांति समझते हैं। जो लोग आज भी हिंदू और सिखों में भेद करके अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं वे इस हकीकत से नावाकिफ हैं कि इस राज्य के ‘हर हिंदू में सिख बसता है और हर सिख में हिंदू रहता है।’ उन्हें कोई भी राजनीति अलग नहीं कर सकती। जहां तक कमलनाथ का सवाल है उनकी राजनीति का अंदाज उनके चुनाव क्षेत्र मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में देखा जा सकता है जहां से वह लगातार आठ बार से चुनाव जीत रहे हैं। प्रत्येक धर्म व जाति के मतदाताओं पर उनका गहरा असर है, लेकिन आप पार्टी द्वारा उन्हें विवाद में घसीटने का सीधा मतलब है कि पंजाब में उनके हस्तक्षेप से उसके मंसूबों पर पानी फिर सकता है, क्योंकि कमलनाथ की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वह सभी वर्गों को साथ लेकर चलने वाले कुशल संगठक माने जाते हैं। इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी के सिद्धांतों से उन्होंने कभी समझौता भी नहीं किया। यही वजह थी कि जब वह यूपीए की मनमोहन सरकार के प्रथम दौर में वाणिज्य मंत्री थे तो उन्होंने ‘विश्व व्यापार संगठन’ में भारत के कृषि क्षेत्र पर नकेल कसने के विकसित देशों के प्रयासों को पूरी तरह फेल ही नहीं कर दिया था, बल्कि विकासशील देशों के बड़े समूह को साथ लेकर उल्टा दबाव बना दिया था और यह मांग उठवा दी थी कि जब तक भारत जैसे विकासशील देशों के किसानों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति यूरोप के किसानों जैसी नहीं हो जाती तब तक कृषि क्षेत्र को सब्सिडी जारी रखी जाएगी और संगठन को इसे स्वीकार करना पड़ेगा। अत: राष्ट्रीय हितों से किसी भी प्रकार का समझौता कमलनाथ ने तब भी नहीं किया, जबकि तत्कालीन सरकार के मुखिया डॉ. मनमोहन सिंह उनके इस रुख से ज्यादा सहमत नहीं बताए जाते थे।

पंजाब में असली चुनावी मुद्दा इस राज्य का रुका हुआ विकास है। यहां की संपन्नता की उड़ान बंद होना है न कि इसके शहीदों की कुर्बानियों की बोली लगाना। इस राज्य के लोगों का तो धर्म ही ‘सूरा सो पहचानिए जो लरै दीन के हेत’ है। अत: यहां न बाजीगरी चलेगी और न कलाकारी।



 

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