- अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक है।
वस्तु व सेवा कर (जीएसटी) पर विभिन्न राज्यों के बीच जो आम सहमति बनती नजर आ रही है उसका सबसे सशक्त पक्ष सकल भारत में उपभोक्ता वस्तुओं व अन्य सेवाओं का (कुछ विशिष्ट वस्तुओं को छोड़कर) एक समान मूल्य निर्धारण होना है। यह भारत के राज्यों में विभक्त संघीय ढांचे को आर्थिक स्तर पर एक सूत्र में जोड़ने का भी प्रयास है। वर्तमान वित्तमंत्री अरुण जेटली ने राज्यों के बीच आम सहमति बनाने के लिए उसी तंत्र को आगे बढ़ाया जिसका गठन वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने मनमोहन सरकार में वित्तमंत्री रहते हुए किया था। यह तंत्र समस्त राज्यों के वित्तमंत्रियों की एक ऐसी उच्चाधिकार प्राप्त समिति बनाकर खड़ा किया गया था जिसमें सभी प्रकार के आपसी विवादों का निपटारा इसी समिति में हो। इसमें बहुमत से फैसला करने के लिए जेटली ने जो कारगर फार्मूला रखा वह यह था कि एक-तिहाई मतों का अधिकार केंद्र के पास रहेगा और दो-तिहाई का अधिकार राज्यों के पास रहेगा जिससे विवाद का निपटारा न्यायोचित ढंग से हो सके और यह एकतरफा न हो पाए।
भारत की बहुदलीय राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था और राज्यों की स्वायत्तशासी व्यवस्था को देखते हुए यह फार्मूला पूरी तरह भारतीय संघ की संरचना के मूल भाव से मेल खाता है किंतु जीएसटी के मामले में भारत के विभिन्न राज्यों में शुरू से ही यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि इससे उन राज्यों को नुक्सान होगा जो औद्योगिक उत्पादन के केंद्र हो चुके हैं और उन्हें लाभ होगा जिनमें तैयार माल की खपत ज्यादा होती है। इसकी वजह यह थी कि राज्य सरकारें अपने यहां स्थापित औद्योगिक इकाइयों से उत्पादन कर आदि के रूप में पर्याप्त राजस्व वसूलती थीं। इन्हें खतरा पैदा हुआ कि जीएसटी लागू होने से उनकी राजस्व हानि होगी। इसका तोड़ जेटली ने यह निकाला कि शुरू के पांच वर्षों में ऐसे राज्यों को जो भी हानि होगी उसकी भरपाई केंद्र सरकार अपने राजस्व खजाने से करेगी मगर दूसरी ओर ऐसे राज्यों को जीएसटी के लागू होने से कोई गुरेज नहीं था जिनके यहां तैयार माल की खपत ज्यादा होती थी।
जीएसटी लागू करने पर जिस राज्य में माल बिकेगा वहीं उस पर यह एकमुश्त कर लगा कर उपभोक्ता के हाथ में पहुंचेगा। अत: राज्यों का बंटवारा दो वर्गों में उत्पादक राज्य व उपभोक्ता राज्यों में हुआ। अगर हम गौर से देखें तो खुली बाजार अर्थव्यवस्था के भीतर यह ‘समाजवादी’ कदम है जिसमें उत्पादक राज्यों की सम्पन्नता का लाभ उपभोक्ता राज्यों को मिलेगा और पूरे भारत में एक समान मूल्य पर सभी वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित होगी। इसके साथ ही उपभोक्ता राज्यों के औद्योगीकरण को बढ़ावा भी मिलेगा क्योंकि ऐसे राज्यों में उपलब्ध कच्चे माल पर आधारित लगने वाले उद्योग स्थानीय बाजारों की मांग पर ही निर्भर नहीं रहेंगे (वैसे यह तर्क औद्योगिक राज्यों पर भी लागू होता है) जीएसटी का मुख्य उद्देश्य यही है कि देश के किसी भी कोने में बनने वाले सामान के लिए पूरा भारत एक संयुक्त बाजार हो।
जहां उत्पादित माल बे रोक-टोक जा सके। विभिन्न राज्यों की सीमाओं में प्रवेश करने के साथ ही वहां लगने वाले कर के अनुरूप वह घटता-बढ़ता न रहे। इसके लागू होने पर उद्योग जगत में प्रतियोगिता का बढ़ना लाजिमी है क्योंकि केवल माल पर लगने वाला परिवहन खर्चा ही अतिरिक्त आएगा किंतु अकेला राज्य तमिलनाडु ऐसा है जिसके बारे में जेटली ने कहा कि उसकी कुछ आपत्तियां विधानसभाओं और संसद की आर्थिक संप्रभुता को लेकर हैं। इस राज्य की मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता ने प्रधानमंत्री से भेंट करके अपनी आपत्तियों का इजहार भी कर दिया है परंतु इस तर्क में ज्यादा वजन इसलिए नहीं है क्योंकि जीएसटी की समिति में सभी राज्यों के वित्तमंत्रयों के बराबर के अधिकार हैं और भारतीय संविधान सभी राज्यों को एक समान अधिकार देता है। तमिलनाडु यदि उत्पादक राज्य है तो गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र और प. बंगाल भी लगभग ऐसे ही हैं किंतु जीएसटी सकल भारत की आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने का मंत्र अपने भीतर छिपाए बैठा हुआ है। विपक्षी पार्टी कांग्रेस का यह कहना कि संविधान संशोधन करके जीएसटी की सीमा बांध दी जानी चाहिए, किसी भी स्तर पर तार्किक नहीं है क्योंकि किसी भी देश की आर्थिक परिस्थितियां संविधान के पन्नों से नहीं बंधी होती हैं बल्कि वे घरेलू से लेकर विश्व बाजार की परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं। इसलिए अब जिद पर अड़े रहने की तुक नजर नहीं आती है।