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Gagar Men Sagar

शीशा तो वही रहता है, तस्वीर बदलती रहती है...

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jun 14 2016 10:18AM | Updated Date: Jun 14 2016 10:18AM
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-अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक


जम्मू- कश्मीर में लगातार पाकिस्तानी और आईएस के झंडे फहराए जाते हैं, पाकिस्तान के समर्थन में नारेबाजी होती है, अलगाववादी नेता और तथाकथित कुल जमाती कहलाने वाले हुर्रियत नेता हड़तालों का आह्वान करते हैं, जिससे जनजीवन प्रभावित होता है। हाल ही में अलगाववादी हुर्रियत नेता यासीन मलिक ने अपने समर्थकों के साथ एक पुलिसकर्मी को थप्पड़ मार दिया था, जो ड्यूटी निभा रहा था। यह थप्पड़ एक पुलिसकर्मी पर नहीं था, बल्कि यह थप्पड़ जम्मू-कश्मीर पुलिस, प्रशासन और सरकार पर है। पुलिस ने यासीन मलिक को गिरफ्तार तो किया, लेकिन पुलिसकर्मी को थप्पड़ मारने के जुर्म में नहीं, बल्कि 1987 के एक पुराने मामले में जेल भेजा गया। इसमें कोई शक नहीं कि अलगाववादी भारत विरोधी ताकतों और असामाजिक तत्वों को प्रोत्साहित करते हैं और दूसरी ओर लोगों को हतोत्साहित करते हैं। यह वही यासीन मलिक है, जो भारत द्वारा वांछित लश्कर सरगना हाफिज सईद के साथ पाकिस्तान में धरने पर बैठा था। चंद अलगाववादियों ने पूरी घाटी की शांति को बंधक बना रखा है, जिससे कारोबार और पर्यटन उद्योग प्रभावित हो रहा है।

छात्र शिक्षा हासिल करने के लिए जम्मू की ओर भागते हैं। एक तरफ आतंकवाद से लड़ते जम्मू-कश्मीर के पुलिसकर्मी और सेना के जवान शहादत दे रहे हैं तो दूसरी तरफ अलगाववादी उनका अपमान कर रहे हैं। कश्मीर में सैनिक कॉलोनी को लेकर चल रहा विवाद न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि अपमानजनक भी है। राज्य में पहली सैनिक कालोनी शेख मोहम्मद अब्दुल्ला द्वारा स्थापित की गई थी। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो अब ट्वीट के जरिए ही राजनीति कर रहे हैं। घाटी में आग भड़काने के लिए बार-बार चिंगारियां सुलगाई जा रही हैं।

आजादी के 69 वर्षों में हम हुर्रियत के नागों पर कोई अंकुश नहीं लगा पाए। लोकतंत्र की अतिवादिता हमने सीख ली है, लेकिन घाटी में शांति स्थापित नहीं कर पाए। आज भी लाल चौक पर तिरंगा फहराने से वहां के राजनीतिज्ञों और अलगाववादियों को दर्द होता है। राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रभक्ति के कोलाहल के बीच दो माह पहले श्रीनगर के एनआईटी परिसर में गैर-कश्मीरी राष्ट्रभक्त छात्रों के साथ जो घटा उसे पूरे राष्ट्र ने महसूस किया। क्या घाटी में राष्ट्रभक्ति प्रदर्शित करना ‘अपराध’ बन गया है? क्या देशभक्ति वहां एक बोझ बन गई है? हमारा सिस्टम आंखों पर पट्टी बांधकर चुपचाप तमाशा देखता रहता है।

भाजपा और पीडीपी की गठबंधन सरकार बनने के बाद पहली बार भाजपा ने महबूबा मुफ्ती सरकार से अलगाववादियों के प्रति नरम नीति की समीक्षा करने की मांग की है। भाजपा ने मांग की है कि अलगाववादियों को दी गई सुरक्षा वापस ली जाए और उन्हें जेलों में बंद किया जाए। आतंकी संगठन युवाओं को वहां अपने जाल में फंसा रहे हैं, उन्हें भी बचाया जाए। घाटी में क्या-क्या हुआ उसे लिखने के लिए तो हजारों पृष्ठ का ग्रंथ बनाना होगा। हमने हमेशा कबतूरों की तरह आचरण किया और सारा कश्मीर षड्यंत्रों और षड्यंत्रकारियों से भर गया।

इसमें कोई संदेह नहीं कि महबूबा मुफ्ती का अलगाववादियों के प्रति रुख हमेशा नरम रहा है। जिन लोगों ने युवाओं के हाथों में बंदूकें थमाईं, स्कूली बच्चों के हाथों में पत्थर पकड़ाए, जिनके उकसाने पर पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते हैं, जिन लोगों ने अरब देशों के धन से विदेशों में संपत्ति बनाई, जो लोग भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं, उन्हें राज्य सरकार लगातार सुरक्षा कवच प्रदान करती है, यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं है तो और क्या है।

हुर्रियत के नागों ने जम्मू-कश्मीर में अशांति फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इनके खून में पाकिस्तानी जहर मिला हुआ है। क्या इस बात को कोई भारतीय सहन कर सकता है कि यासीन मलिक, सैयद अली शाह गिलानी या फिर दूसरे अलगाववादी नेता हर वक्त भड़काऊ बयान दें, सुरक्षा बलों के खिलाफ असभ्य भाषा का प्रयोग करें और पुलिसकर्मियों पर हाथ उठाने की जुर्रत करें। यासीन मलिक के पुलिसकर्मी को थप्पड़ की गूंज भले ही महबूबा मुफ्ती सुने न सुनें, लेकिन कानून की गूंज पूरे देश में सुनाई देनी चाहिए। भारत की सहनशील और उदारवादी संस्कृति का मतलब यह नहीं कि अलगाववादी कुछ भी करेंगे। जम्मू-कश्मीर में भाजपा की मांग जायज है कि ऐसे लोगों से सुरक्षा वापस ली जाए, इन्हें जेलों में डाल दिया जाए, बार-बार हड़ताल का आह्वान करने वाले लोगों को राज्य से बाहर की जेलों में भेजा जाए ताकि घाटी की शांति में कोई बाधा उत्पन्न न हो। क्या भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार ऐसा कर पाएगी? अगर ऐसा नहीं किया गया तो फिर घाटी में शांति दूर का स्वप्न है। कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की कॉलोनी का विरोध करने वाले जानें कि वह भी घाटी के ही मूल निवासी हैं तो फिर विरोध क्यों?

यह कैसी विडंबना है कि-
कश्मीर में रहने वालों की तकदीर बदलती रहती है
शीशा तो वही रहता है, तस्वीर बदलती रहती है।

शीशा तो वही है, जिसमें कभी शेख की तस्वीर थी, फिर फारूक अब्दुल्ला की, फिर मुफ्ती मोहम्मद सईद की, फिर उमर की और अब महबूबा मुफ्ती की तस्वीर है।
 

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