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उत्तरप्रदेश में शुरू हुई नई उधेड़बुन

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jun 11 2016 11:44AM | Updated Date: Jun 11 2016 11:44AM
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-कृष्णमोहन झा
 -विश्लेषक


उत्तरप्रदेश विधानसभा के अगले साल होने जा रहे चुनावों में अपनी शानदार जीत सुनिश्चित करने के इरादे से जिन दलों ने अभी से युद्धस्तरीय तैयारियां प्रारंभ कर दी हैं उनमें भारतीय जनता पार्टी को अग्रणी माना जा सकता है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पद की कमान केशव प्रसाद मौर्य को सौंपकर पार्टी ने दो माह पहले ही यह संदेश दे दिया था कि दलितों और पिछड़ी जातियों के वोटों पर उसकी विशेष नजर है। भाजपा इस हकीकत से वाकिफ हो चुकी है कि उत्तरप्रदेश में बड़े पैमाने पर विकास कार्य कराए जाने के बावजूद अगले चुनावों में सपा सरकार को एंटी इन्कबैंसी की वजह से जनता का कोपभाजन बनाना पड़ सकता है और उसका सीधा लाभ बहुजन समाज पार्टी को ही मिलने की संभावनाएं बलवती हो उठी हैंं, जिसने 2007 के चुनावों में ‘चढ़ गुंडन की छाती पर मुहर लगाओ हाथी पर’ का नारा देकर सत्ता पर कब्जा कर लिया था। इस समय भी उत्तरप्रदेश में वही हालात हैं।

अपराधी तत्वों को नियंत्रित कर पाने में अखिलेश यादव की सरकार बुरी तरह असफल सिद्ध हुई है और सरकार के पास इतना समय भी शेष नहीं बचा है कि राज्य में बिगड़ती कानून व्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत बनाकर जनता का भरोसा जीत सके। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो यह तय मानकर चल रही है कि अगले विधानसभा चुनावों के बाद राज्य में सत्ता की बागडोर उनके पास ही आने वाली है, इसलिए भाजपा भी बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिशों में जुट गई है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी के अंतर्गत एक गांव में एक दलित परिवार के घर पर भाजपाध्यक्ष अमित शाह का भोजन करना भी आप भाजपा की चुनवी तैयारियों का ही एक हिस्सा मान सकते हैं। सपा सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, बसपा सुप्रीमो मायावती या कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल भले ही दलित परिवार के घर अमित शाह के भोजन करने की घटना को एक नाटक करार दे, पर खुद को दलितों और पिछड़ी जातियों का सबसे बड़ा हमदर्द बताने के लिए ऐसी घटनाएं भारतीय राजनीति में इतनी आम हो चुकी है कि इनसे कोई भी दल जनता को भरमाने में सफल नहीं हो सकता। जनता को नाटक और हकीकत में भेद करने की समझ आ चुकी है।

भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव इसलिए विशेष मायने रखते हैं क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों में उसने राज्य की 80 में से 73 लोकसभा सीटों पर कब्जा करके इतिहास रच दिया था। उस समय अमित शाह भाजपा के उत्तर प्रदेश प्रभारी थे और राज्य में भाजपा की प्रचंड विजय का श्रेय अमित शाह की अद्भुत रणनीतिक क्षमता को दिया गया था। उक्त लोकसभा चुनावों के बाद ही अमित शाह को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान सौंपी गई थी। उत्तरप्रदेश विधानसभा के आगामी चुनावों में दरअसल अमित शाह के रणनीतिक कौशल का भी इम्तिहान होना है, इसलिए अमित शाह ने उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए अभी से अपनी रणनीति तय करना शुरू कर दिया है। उत्तरप्रदेश विधानसभा देश की सबसे बड़ी विधानसभा है। इस नाते हर दल के लिए इस राज्य में अपनी जीत विशेष मायने रखती है।

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का तो मुख्य जनाधार उत्तरप्रदेश में ही फैला हुआ है। यही स्थिति राष्ट्रीय लोकदल की भी है जो पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जाट बहुल क्षेत्रों तक सीमित जनाधार के बल पर ही अपना अस्तित्व बचाए हुए हंै और उसके अध्यक्ष चौधरी अजीत सिंह ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश में अपने जनाधार की शक्ति के सहारे ही अब तक विभिन्न दलों की सरकारों में पद प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है। वे कांग्रेस, भाजपा, सपा सभी के साथ तालमेल कर चुके हैं। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों के अगले साल होने जा रहे चुनावों के पूर्व वे किस दल के साथ तालमेल कर लेंगे यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। उनकी चर्चा सपा के साथ भी चल रही है और जदयू के साथ भी। सपा और जदयू में से किसी एक में विलय का विकल्प भी उन्होंने खुला रखा है।

यूं तो उत्तरप्रदेश में सपा अभी तक यह दावा करती चली आ रही है कि वह अकेले दम पर आगामी विधानसभा चुनाव लड़ेगी परंतु एंटी इन्कम्बैंसी फैक्टर के कारण उसे मतदाताओं का कोपभाजन बनने की आशंका भी सताने लगी है, इसलिए वह रालोद से चुनावी तालमेल करने पर भी विचार कर सकती है। उधर, रालोद ने भाजपा की तरफ से भी निमंत्रण मिलने की उम्मीद लगा रखी है। दरअसल, रालोद पर अब सपा और भाजपा यह दवाब बना रही है कि वह उनमें विलय के लिए तैयार हो जाए। अजीत सिंह यह अच्छी तरह समझ चुके हैं कि अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए उन्हें समझौता तो करना ही पड़ेगा, इसलिए वे उसी दल के साथ जाएंगे जहां वे अधिकतम राजनीतिक लाभ लेने में सफल हो सके। अजीत सिंह को अपने बेटे जयंत सिंह के राजनीतिक पुनर्वास की चिंता भी सता रही है जो गत लोकसभा चुनावों में मथुरा से भाजपा प्रत्याशी हेमा मालिनी के हाथों पराजित हो गए थे। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों के पूर्व कई चौकाने वाले राजनीतिक समीकरण सामने आ सकते हैं।

वास्तव में राजनीति तो संभावनाओं का खेल है। यहां कोई स्थायी शत्रु या स्थायी मित्र नहीं होता। इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अपनी पूरी ताकत लगा देने के बावजूद अगले साल अगर भाजपा बहुमत पाने में सफल न हो तो बसपा के साथ मिलकर सरकार बनाने का विकल्प चुन ले। बसपा के साथ भाजपा पहले भी सत्ता में भागीदारी कर चुकी है, हालांकि भाजपा को उस समय कुछ कटु अनुभव भी हुए थे, लेकिन अगर भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ और जम्मू-कश्मीर में पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी के साथ सत्ता में भागीदारी कर सकती है तो उत्तरप्रदेश में वह बसपा के साथ सरकार बनाने का अवसर नहीं गंवाना चाहेगी।

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