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चौदह साल बाद इंसाफ पर सवाल कितना जायज

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jun 4 2016 10:46AM | Updated Date: Jun 4 2016 10:46AM
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-राजीव रंजन तिवारी
 -विश्लेषक


वर्ष 2002 में हुए गुजरात के गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड पर स्पेशल एसआईटी कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए दो दर्जन लोगों को दोषी, जबकि 36 लोगों को बेगुनाह करार दिया है। कोर्ट ने जिन 36 लोगों को बरी किया है, उनमें एक पुलिस इंस्पेक्टर और भाजपा नेता बिपिन पटेल शामिल हैं। आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी किया गया। फरवरी 2002 में गुजरात के गोधराकांड के बाद उत्तेजित भीड़ ने गुलबर्ग सोसायटी पर धावा बोल कर बहुत से लोगों की हत्या कर डाली थी। इस सोसायटी में रहने वाले कांग्रेस के पूर्व सांसद अहसान जाफरी समेत 69 मुसलमानों को जलाकर मार डाला गया था। इस हत्याकांड को अंजाम देने का आरोप एक स्थानीय पुलिस इंस्पेक्टर समेत कुल 61 लोगों पर लगा था। इनमें से केवल नौ लोग जेल में बंद हैं।

गुलबर्ग सोसायटी कांड में मारे गए कांग्रेस नेता जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने सुप्रीम कोर्ट में दायर की अपनी अर्जी में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई लोगों पर आरोप लगाया था। एसआईटी ने मार्च 2010 को नरेंद्र मोदी से लंबी पूछताछ की, जिसमें मोदी ने खुद पर लगाए गए आरोपों से इंकार किया था। इस मामले में एसआईटी कोर्ट के फैसले पर जाकिया जाफरी ने असंतोष जाहिर किया है। जाफरी ने कहा कि यह आधा न्याय है, जिसे मिलने में भी 14 साल लग गए। जज पीबी देसाई ने अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी में हुए इस हत्याकांड पर फैसला सुनाते हुए कहा कि वह घटना एक औचक हमला था, कोई सोची समझी आपराधिक साजिश नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम को 2002 के गुजरात दंगों में गुलबर्ग कांड समेत नौ और मामलों की जांच की जिम्मेदारी सौंपी है।

आखिरकार गुलबर्ग सोसायटी मामले में अदालत ने को अपना फैसला सुना दिया। फैसले को लेकर असंतोष की गुंजाइश शायद बनी रहेगी, जैसा कि पीड़ित पक्ष का चेहरा मानी जाने वाली जकिया जाफरी की प्रतिक्रिया से भी लगता है। अगर सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप न रहा होता, तो सारी कार्यवाही न्याय का मखौल साबित हो सकती थी। चौबीस दोषी ठहराए गए लोगों में से अदालत ने ग्यारह को हत्या का दोषी पाया है और तेरह को उससे कम के अपराध का। छह आरोपियों की मौत हो चुकी है। आम धारणा रही है कि यह हत्याकांड सुनियोजित था। अक्टूबर 2007 में एक स्टिंग आॅपरेशन ने इस कांड की तैयारी को लेकर कुछ लोगों की आपसी बातचीत का खुलासा किया था। अदालत ने किसी को भी षड्यंत्र का दोषी नहीं ठहराया है, क्योंकि इसके लिए अदालत की निगाह में पर्याप्त सबूत नहीं थे। तो क्या यह जांच और अभियोजन की कमजोरी मानी जाएगी। 28 फरवरी 2002 को हजारों की हिंसक भीड़ ने गुलबर्ग सोसायटी पर हमला बोल दिया था। मारे गए 69 लोगों में कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी भी थे। नरोदा पाटिया, बेस्ट बेकरी, सरदारपुरा जैसी इस तरह की और भी भयानक घटनाएं हुई थीं। इन घटनाओं को रोक न पाने के लिए तो तत्कालीन राज्य सरकार पर तोहमत लगी ही, उस पर यह आरोप भी लग रहा था कि उसकी दिलचस्पी आरोपियों को बचाने में है, इसलिए सबूतों तथा अभियोजन की प्रक्रिया को कमजोर करने की कोशिश हो रही है। इस प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर संदेह जताने वालों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी था। आखिरकार आयोग और गैरसरकारी संगठन सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, जिनमें जांच सीबीआई को सौंपने और मुकदमे राज्य से बाहर चलाने की मांग की गई थी, सर्वोच्च अदालत ने गुलबर्ग सोसायटी, नरोदा पाटिया, सरदारपुरा जैसे दस बड़े हत्याकांडों से जुड़े मामलों की न्यायिक प्रक्रिया फौरन रोक देने का आदेश दिया और राज्य सरकार से कहा किवह इन मामलों की जांच के लिए एसआईटी यानी विशेष जांच टीम गठित करे।

सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में एसआईटी गठित की गई जिसने मामलों की नए सिरे से जांच शुरू की। अलबत्ता एसआईटी की कार्यप्रणाली पर भी समय-समय पर सवाल उठे। एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट मई 2010 में सर्वोच्च अदालत को सौंपी। खुद सर्वोच्च अदालत की ओर से नियुक्त गए एमिकस क्यूरी यानी न्यायमित्र ने उस रिपोर्ट पर कई सवाल उठाए थे। अदालत ने एसआईटी से उन संदेहों का निराकरण करने को कहा। फिर एसआईटी ने और भी ब्योरों के साथ अपनी अंतिम रिपोर्ट मार्च 2012 में सौंपी। गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड का फैसला चौदह साल बाद आया है। गुजरात दंगों के और भी कई मामलों में फैसला आना बाकी है। इतने लंबे समय में जांच की निष्पक्षता पर शक जताने, सबूतों को कमजोर करने के आरोपों और कई मामलों में गवाहों के मुकरने आदि की लंबी कहानी है। इन अनुभवों ने भी रेखांकित किया है कि पुलिस को राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त रखने की संस्थागत व्यवस्था की जाए, जैसी कि सिफारिश सोली सोराबजी समिति ने की थी। 2002 के गुजरात दंगों ने पूरी राष्ट्रीय राजनीति को जैसे बांट दिया था। अब 14 साल बाद गुलबर्ग सोसायटी का फैसला आया है तो फिर से इंसाफ का सवाल राजनीति के आईने में देखा जाने लगा है। कोर्ट के फैसले पर कांग्रेस का कहना है कि 14 साल बाद आधा न्याय मिला है। जो सूत्रधार हैं, गुलबर्ग कांड के वे बचे हुए हैं। गुलबर्ग सोसायटी मामले में 36 आरोपियों के बरी होने पर ही कांग्रेस सवाल नहीं उठा रही, वो उस हिंसा के सूत्रधारों की याद भी दिला रही है। आरोप है कि गुलबर्ग केस में 36 आरोपी बरी हो गए, क्योंकि अभियोजन पक्ष ने अपना काम ठीक से नहीं किया।

सर्वविदित है कि स्वयं गुजरात सरकार ने 2002 में हुई हिंसा के मामले से जुड़े अनेक दस्तावेज को नष्ट करवाया है क्योंकि ऐसे नियम हैं जिनके अनुसार समय-समय पर गैरजरूरी दस्तावेज नष्ट किए जाते हैं। इसके बावजूद 24 लोगों को सजा सुनाई जाएगी और यह एक बड़ी सफलता है। बहरहाल, देखना है कि इस फैसले का देश की सियासत पर क्या असर होता है?

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