24 Apr 2024, 11:58:24 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

वक्त तब हंसी सितम करता है जब वृद्धावस्था आती है। सक्रियता से लबालब व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है। आसपास लोगों से घिरा रहने वाला व्यक्ति एकाएक नितांत अकेला हो जाता है। ऐसा वक्त सब पर आता है।

इस अवस्था को लेकर अपनी ही संतान की बहुत सारी शिकायतें शुरू हो जाती हैं। ई-मेल पर एक इसी तरह की बात को लेकर एक पाठिका ने कई प्रश्न उठाए हैं। उनके मेल की शुरुआत इसी से हुई है कि बुजुर्गों की असहाय स्थिति व उनकी मजबूरियों तथा अकेलेपन की बात हर समय की जाती है। यह प्राय: कहा जाता है कि बच्चे जब बड़े हो जाते हैं व नौकरी-धंधे में लग जाते हैं तो प्राय: अपने बुजुर्गों विशेषकर माता-पिता के प्रति उदासीनता और उपेक्षा का व्यवहार करते हैं। आजकल की युवा पीढ़ी को अपनी मौज-मस्ती से मतलब है पर, घर के बुजुर्ग कैसा महसूस करते हैं इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं होती। इतनी सारी बातें लिखने के बाद उन्होंने बुजुर्गों पर सवाल उठाते हुए कहा है कि- क्यों बुजुर्ग अपनी बुजुर्गियत के अनुसार व्यवहार करते हैं? प्राय: परिवारों में यह होता है कि बात-बात पर घर के बड़े अपने बेटे व बहू के जीवन में निरंतर हस्तक्षेप करते हैं। वह इस सत्य का सामना ही नहीं कर पाते कि अब उनके बच्चों का अपना जीवन और अपनी व्यवस्था हो गई है और वह अपने ढंग से जीना चाहते हैं, पर बुजुर्ग इसमें निरंतर टोका-टोकी करते हैं। वह समाज की बदली हुई परिस्थितियों तथा नए माहौल की बराबर आलोचना करते रहते हैं। इससे परिवारों में तनाव बढ़ता है और परिवारों के टूटने व बिखरने की नौबत आ जाती है। हम बुजुर्गों का सम्मान करना चाहते हैं, उन्हें भी तो सम्मान पाने और उसका हकदार बनने की कोशिश करना चाहिए।

इन पाठिका के तर्क और इस विषय को उठाने के उनके प्रयास को हम स्वीकार करते हैं। इसके लिए भी बहुत हिम्मत चाहिए। इस सबके बावजूद उनकी एक बात सकरात्मक है, उन्होंने यह भी कहा कि बुजुर्गों के आदर व सम्मान की बात हमारे समाज की पहचान है और यह पहचान बनी रहना चाहिए। उन्होंने जो बातें उठाई हैं वह आज के परिवारों की घर-घर की कहानी है। बदलते परिवेश में यह सत्य बहुत मुखरता से उठ रहा है। प्रश्न यह उठता है कि कितने प्रतिशत बुजुर्ग ऐसे होंगे जो इस प्रकार का व्यवहार करते होंगे?, इनका प्रतिशत बहुत कम होगा। आजकल तो अधिकांश परिवारों में बुजुर्गों का सम्मान व आदर कम ही होता है। इस माहौल की सोच और मानसिकता ऐसी है जो किसी बुजुर्ग को अव्वल तो कुछ कहने ही देना चाहती और अगर फिर भी उन्होंने कुछ कहा दिया तो उसे हस्तक्षेप मानती है। उनके तथाकथित नए विचार और इच्छाओं का संसार ही नहीं है। यदि उसे लेकर भी घर के बुजुर्ग ने अपनी उनके प्रति चिंता के कारण कुछ कह दिया तो यह भी उन्हें हस्तक्षेप लगता है।

दरअसल इस पीढ़ी की सहनशक्ति कम हो गई है। उन्हें किसी भी स्थिति में दूसरे से सामंजस्य की तो बहुत अपेक्षा है पर, अपने व्यवहार को लेकर सोचने की उन्हें फुर्सत नहीं है। ऐसे में क्या किया जाए? पिछले दिनों प्रसिद्ध लेखिका वेंडी डोनिजर ने अपने एक साक्षात्कार में कहा जो बहुत ही सकारात्मक विचार लगा। उन्होंने कहा- आय एम नाऊ इन द फॉरेस्ट डवेलर्स स्टेट। इसका पूरा अनुवाद नहीं करते हुए यह कहना काफी होगा कि उन्होंने कहा कि वह स्वयं को वनवास की स्थिति में पाती हैं। अब वनवास का अर्थ वन में जाना नहीं, बल्कि परिवार में रहकर ही वनवासी जैसा होना है। शायद हमारी पाठिका जैसे बहुत अन्य पाठक-पाठिकाएं भी इससे सहमत हों।

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