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फिर पकने लगा तीसरे मोर्चे का ख्याली पुलाव

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jun 2 2016 10:45AM | Updated Date: Jun 2 2016 10:45AM
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-कृष्णमोहन झा
विश्लेषक


प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को इस बार के विधानसभा चुनाव में जो प्रचंड बहुमत हासिल हुआ है, उसका श्रेय ममता बनर्जी को दिया जा रहा है, जो पिछले पांच साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं। 2011 के विधानसभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस के साथ मिलकर लड़े थे और उस समय तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के गठबंधन को जितनी सीटें मिली थी उससे भी अधिक सीटें इस बार तृणमूल कांग्रेस को अकेले चुनाव लड़कर मिल चुकी है। तृणमूल कांग्रेस की इस सफलता ने पार्टी सुप्रीमो एवं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी जगा दिया है, इसलिए मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी के शपथ ग्रहण समारोह होते ही उनका फेडरल फ्रंट गठित करने का विचार पुन: सुर्खियों का विषय बन गया।

जिस तरह कभी सपा नेता मुलायम सिंह यादव ने तीसरा मोर्चा गठित करने की पहल की थी और बिहार में गत विधानसभा चुनाव में राजद, जदयू और कांग्रेस के गठबंधन को बहुमत मिलने के बाद राज्य के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने संघ मुक्त भारत का जुमला उछाला था, उसी तरह संघीय मोर्चा या फेडरल फ्रंट के गठन के लिए अतीत में ममता बनर्जी ने भी पहल की थी। इसके अलावा लोकसभा चुनावों में भाजपा की भारी सफलता से घबराए छह जनता दलों ने कभी महाजनता परिवार के गठन की कोशिश भी की थी और प्रस्तावित नए दल का नाम और झंडा तय करने की जिम्मेदारी मुलायम यादव को सौंपी गई थी, परंतु बाद में स्वयं मुलायम सिंह के पीछे हट जाने के कारण तीसरा मोर्चा बनने के पहले ही टूट गया। ताजा विधानसभा चुनावों में प. बंगाल में ममता बनर्जी के और ताकतवर बनकर उभरने से दूसरे क्षेत्रीय दलों के महत्वाकांक्षी नेताओं के दिलों में निसंदेह ममता बनर्जी के प्रति सम्मान बढ़ा है। उन्हें शायद यह भी महसूस हो रहा है कि विपक्ष की एकता का स्वप्न ममता बनर्जी को साथ लिए बिना साकार नहीं हो सकता। इसलिए ममता बनर्जी और उनके मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने के लिए अरविंद केजरीवाल, नितीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, अखिलेश यादव, फारूख अब्दुल्ला आदि प्रमुख क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों का कोलकाता पहुंचना केवल औपचारिकता का निर्वाह करना भर नहीं था। उस मौके पर फेडरल फ्रंट का विचार तो पुनर्जीवित होना ही था। दरअसल प. बंगाल में अपने दल पर अपनी पार्टी को प्रचंड बहुमत से सत्ता में दुबारा ले आने का जो इतिहास ममता बनर्जी ने रच दिया है, उसने उनका कद सारे क्षेत्रीय दलों के मुखियाओं के बीच इतना ऊंचा कर दिया है कि कोई भी क्षेत्रीय दल उनके प्रति विशिष्ट सम्मान व्यक्त किए बिना नहीं रह सकता। यही हकीकत ममता बनर्जी के शपथ ग्रहण समारोह में उभरकर सामने आ चुकी है, लेकिन इसी बिंदु पर एक और बात रेखांकित करने योग्य है कि ओडिशा में सत्तारूढ़ क्षेत्रीय दल बीजू जनता दल और तमिलनाडु में पुन: सत्तारूढ़ होने जा रहे क्षेत्रीय दल अन्ना द्रमुक के सुप्रीमो नवीन पटनायक और जयललिता कोलकाता नहीं पहुंचे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अतीत में जब विपक्षी दलों के बीच एकता कायम करने अथवा कोई मोर्चा गठित करने के प्रयास हुए हैं तब उन प्रयासों से इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने खुद को अलग रखा है अथवा बेमन से उन प्रयासों का समर्थन किया है। इसलिए ममता बनर्जी के नेतृत्व में अगर कभी फेडरल फ्रंट का गठन संभव हो भी गया तो इस बात की संभावना नगण्य ही है कि नवीन पटनायक और जयललिता उसमें शामिल होने के लिए तैयार हो जाएंगे। ममता बनर्जी शायद यह भी नहीं भूली होंगी कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन के मुद्दे पर मुलायम सिंह यादव ने पहले उनका समर्थन कर दिया था और बाद में अपनी राय बदल दी थी। इसी तरह अगर प्रस्ताव को आगे बढ़ाते हैं तो क्या वे उस कांग्रेस का साथ छोड़ देंगे जिसने हाल में ही संपन्न प. बंगाल विधानसभा चुनाव में वाममोर्चे का साथ गठबंधन करके तृणमूल कांग्रेस को चुनौती पेश की थी। दरअसल देश के भाजपा विरोधी दलों का चरित्र इतना विरोधाभाषी हो चुका है कि उनके बीच मतैक्य की संभावनाएं धूमिल हो चुकी हंै। जब भी कोई तीसरा मोर्चा या फेडरल फ्रंट का प्रस्ताव सामने आता है तो उसका आधार यह होता है कि भाजपा और वामदलों के साथ कांग्रेस को साथ लेने पर भी सभी विरोधी दलों की राय अलग-अलग होती है। कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि क्षेत्रीय विरोधी दलों की सहयोगी पार्टी बनना उसकी मजबूरी बन चुका है परंतु वह राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपना वर्चस्व भी बनाए रखना चाहती है जो अब कतई संभव नहीं है। नितीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल व उमर अब्दुल्ला जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप अब कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकते।

भारतीय जनता पार्टी को ऐसे किसी मोर्चे के गठन की उम्मीद ही नहीं है इसलिए ऐसी कोशिशों से उसके घबराने का तो सवाल ही नहीं उठता। राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी को जरूर यह उम्मीद है कि 2019 के लोकसभा चुनावों के पूर्व एक धर्मनिरपेक्ष मोर्चा अस्तितव में आ जाएगा। ख्याली पुलाव पकाने वाले विपक्षी नेता अभी इस सवाल पर कोई भी चर्चा करने से बचना चाहते है कि 2019 के लोकसभा चुनावों के पूर्व ऐसा कोई मोर्चा या फ्रंट अस्तित्व में आ जाता है तो यह प्रधानमंत्री पद के लिए किसे अपना उम्मीदवार घोषित करेगा। सच तो यह है कि यही सवाल इस मोर्चे के बिखराव का कारण बनेगा जिसके गठन की सभावनाएं अभी तक धूमिल ही हैं।
 

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