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गरमा रही विकास और विरोध की राजनीति

By Dabangdunia News Service | Publish Date: May 31 2016 11:02AM | Updated Date: May 31 2016 11:02AM
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-अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक


जब 1947 में यह मुल्क आजाद हुआ था, तब भी हमने जश्न मनाया था। यह जश्न दस लाख लोगों की लाशों पर तामीर हुए पाकिस्तान के वजूद में आने के बावजूद मनाया गया था मगर जश्न मनाने की वजह थी। यह वजह थी कि भारत अंग्रेजों की दासता की जंजीरों से मुक्त हुआ था। बिना शक इस दासता से मुक्त कराने में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने ही अग्रणी भूमिका निभाई थी, मगर दो वर्ष पहले केंद्र की सत्ता पर काबिज मोदी सरकार के जश्न मनाने का एक सबब निश्चित रूप से है कि भारत को नरेंद्र मोदी ने अपने नेतृत्व में चलने वाली सरकार के साये में भ्रष्टाचार से मुक्त कराया है। इस हकीकत को कोई कांग्रेसी भी नकार नहीं सकता है, मगर यह भी उतना ही सत्य है कि लोकतंत्र में किसी भी सरकार को बिना आलोचना या नुक्ताचीनी के निरापद नहीं छोड़ा जा सकता। जिस दिन यह स्थिति आ गई उस दिन लोकतंत्र स्वयं ही खतरे में पड़ जाएगा।

विरोधी दल चाहे छोटा हो या बड़ा, उसे सरकार की नीतियों की समीक्षा करने और अपने संशोधनात्मक सुझाव देने का पूरा अधिकार है। इसी अधिकार का इस्तेमाल करके आज की भाजपा पार्टी जनसंघ के रूप में पैंया-पैंया चल कर वायुयान पर सवार होकर देश की स8ाा पर आरूढ़ हुई है। अत: लोकतंत्र में विकास और विरोध समानांतर रूप से चलते हैं। ये तब भी समानांतर रूप से अपनी यात्रा कर रहे थे जब देश पर पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे महापराक्रमी और लोकप्रिय जननेता की सरकार थी और तब भी इसकी गति समानांतर थी जब इन्दिरा गांधी जैसी शक्तिशाली प्रधानमंत्री का शासन पूरे देश पर था परंतु लोकतंत्र में विरोध का अर्थ 'विलोम अर्थात उल्टा कदापि नहीं होता है। यह विरोध सृजनात्मक होता है, विध्वंसात्मक नहीं। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब बंगलादेश युद्ध से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत-सोवियत संघ रक्षा संधि की तो विपक्ष में बैठे भारतीय जनसंघ ने इस सन्धि का पुरजोर विरोध किया था। देश भर में अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में विरोध प्रदर्शन किए गए थे। उस समय के जनंसघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे भारतीय रक्षा हितों को सोवियत संघ के समक्ष गिरवी रख देने जैसी संज्ञा दी थी। इतना ही नहीं अटलजी के नेतृत्व में दिल्ली के रामलीला मैदान में भारत-रूस संधि की प्रतियां जलाई गई थीं और सरकार को चेताया गया था कि जनसंघ इस संधि को उसके मौजूदा स्वरूप में कभी स्वीकार नहीं करेगा। इसके बाद बंगलादेश विजय के बाद जब 1972 में पाकिस्तान के साथ शिमला समझौता किया तो भी जनसंघ ने इसकी पुरजोर मुखालफत करते हुए इसे राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध बताया था और शिमला समझौता की प्रतियां भी दिल्ली के रामलीला मैदान में एक महती जनसभा करके अटल जी के नेतृत्व में फूंकी गई थीं। इतना ही नहीं जब इसके बाद इंदिराजी ने सिक्किम का भारतीय संघ में विलय किया तो उस समय के संगठन कांग्रेस के नेता स्व. मोरारजी देसाई ने इसका विरोध किया था, मगर वही देसाई बाद में जनता पार्टी के प्रधानमंत्री बने थे जिनकी सरकार में अटलजी व अडवाणीजी ने मंत्री के रूप में काम किया था मगर क्या हम देसाई के इस विरोध को राष्ट्रविरोधी कह सकते हैं? श्री देसाई का विरोध उस समय भारत की घोषित विदेश नीति की रूह से पूरी तरह सैद्धांतिक था। कहने का मतलब सिर्फ इतना-सा है कि लोकतंत्र हमें किसी भी सरकार को पग-पग पर जांचने-परखने की ऐसी खुली आजादी देता है, जिससे राष्ट्रीय हितों को और अधिक बेहतर तरीके से संपुष्ट किया जा सके।

मोदी ने शासन के दो वर्ष पूरे करने पर विपक्षी दलों के इस अधिकार का पूरा सम्मान करते हुए ही कहा कि लोकशाही में सरकार की आलोचना तो होती है मगर केवल विरोध के लिए विरोध नहीं होना चाहिए। विपक्षी दलों को यह खुले दिल से स्वीकार करते हुए मौजूदा सरकार की प्रशंसा करनी चाहिए कि उसने गरीबों का हक मारने वाले लोगों को किनारे खड़े करके सरकारी खजाने के 36 हजार करोड़ रुपए बचाए हैं। इसमेंं मोदी को बधाई देने से विपक्षी दलों का रुतबा कम नहीं होगा क्योंकि स्वयं राजीव गांधी ने ही बतौर प्रधानमंत्री कहा था कि सरकार जितना खर्च गरीब लोगों की मदद करने के लिए करती है उसमें एक रुपए में से केवल दस पैसे ही उन तक पहुंचते हंै। बाकी सारे पैसे बीच में गड़प हो जाते हैं। मोदी ने यही काम तो किया है, इन नव्बे पैसों को बचाकर उन्होंने गरीबों के पास पूरा रुपया पहुंचाने की तरकीब भिड़ाई है। यदि देश में एक करोड़ 67 लाख जाली या फर्जी राशन कार्ड थे तो उनका लाभ कौन प्राप्त कर रहा था? यदि खुशहाल समझे जाने वाले लोगों को गैस सिलेंडरों पर सरकारी सब्सिडी दी जा रही थी तो उन गरीबों का हक नहीं मारा जा रहा था जिनके पास चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी तक के पैसे नहीं होते और ऐसे लोगों को मिलने वाले मिट्टी के तेल को कौन लोग हड़प कर रहे थे? बिना शक इसमें से अधिसंख्य नेता कांग्रेस पार्टी के ही थे क्योंकि इस पार्टी का पचास साल से ज्यादा तक देश पर शासन रहा। अत: इसकी सफाई तो करनी ही होगी और यह काम करने के लिए मोदी को आम जनता बधाई तो देगी ही, मगर सफलताओं का जश्न मनाते हुए हमें यह जरूर ध्यान रखना पड़ेगा कि आम आदमी की हालत में पिछले दो वर्षों में कितना सुधार आया है या उसकी बेहतर जिन्दगी के लिए कितना काम हुआ है या चलाया जा रहा है।
 

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