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Gagar Men Sagar

किशोरों को ‘न’ सुनने की आदत नहीं है

By Dabangdunia News Service | Publish Date: May 28 2016 11:36AM | Updated Date: May 28 2016 11:36AM
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-वीना नागपाल

समाचार पत्र में एक छोटी सी खबर लगाई गई थी, जो जल्दी नजरों में नहीं आती पर जब आ ही गई तो उसने चौंका दिया। दिल्ली के नव-घनाढ्य परिवार का वह किशोर अपने ‘पापा’ (आजकल तो पा या डेड कहना ही काफी है) से महंगी कार की चाबियां मांग रहा था। उसे अपने हमउम्र दोस्तों, जिनमें उसकी मित्राएं (गर्लफ्रेंड्स) भी शामिल थीं - लंबी ड्राइव पर जाना था। पापा पता नहीं उस दिन कुछ उखड़े हुए थे। उन्होंने एक समाचार पढ़ा था कि पिछली रात इसी तरह का किशोर अपने दोस्तों को लेकर सड़क पर कार दौड़ा रहा था कि उसकी कार अनियंत्रित होकर फुटपाथ पर चढ़ गई। वहां सोए हुए दो आदमियों को गहरी चोटें लगी और कार और भी अनियंत्रित होकर एक दीवार से टकराकर चकनाचूर हो गई। वह तो आजकल महंगी कारों में एयर बैग्स लगे हुए हैं तो वह खुल गए और सबकी जान बच गई। पर, वे पुलिस थान में बंद हो गए बाद में जेल भी हो गई, इसलिए हमारी बात वाले किशोर को इस समाचार के कारण पापा ने चाबियां देने से इंकार कर दिया, हालांकि पहले वह देते रहे थे। किशोर पुत्र तो दोस्तों के साथ प्रोग्राम बना चुका था और उसे ‘न’ सुनने की कतई आदत नहीं थी, इसलिए उसने गुस्से में भरकर पिता की ओर देखा और अपने कमरे में जाकर बंद हो गया। कुछ समय बाद मॉम (मां) को याद आया कि बेटा बाहर नहीं आया है। दरवाजा खटखटाया, पर वह नहीं खुला। अंतत: जब दरवाजा तोड़कर अंदर घुसा गया तो उसने बिस्तर की चादर का फंदा बनाकर फांसी लगा ली थी। दो दिन के भीतर ही एक और खबर समाचार पत्र में दिखी। लाड़ला बेटा बाइक लेने के लिए जोर दे रहा था, लगभग रोज वह अपनी फरमाइश रखता। एक दिन मम्मी-पापा ने उसे सख्ती से मना कर दिया और कहा कि अगले वर्ष ले देंगे। पर, बेटे को सब्र कहां? उसने ‘न’ सुनते ही कमरे में बंद होकर फांसी लगा ली।

इन घटनाओं को भयंकर दुर्घटनाएं कहा जाना चाहिए। माता-पिता बच्चों से डरे व सहमे रहने लगे हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि वह अपने बच्चों को किसी बात के लिए कैसे समझाएं तथा किसी विशेष बात के लिए कैसे न करें। बच्चों को ‘नहीं’ सुनने की आदत ही नहीं रही या यंू कहें कि उनके संस्कार ही नहीं हैं कि व कुछ कहें और उसकी मनाही हो जाए। यह मनाही तो उनकी सहनशक्ति से बाहर हो चुकी है। बचपन से ही उनकी प्रत्येक मांग पूरी होती आई है। उन्हें कोई भी वस्तु आकर्षित करती है तो वह अपनी बात के बारे में आश्वस्त रहते हैं कि वह उन्हें मिल जाएगी। उनकी पढ़ाई तो महंगी फीस वाले स्कूल में होती है और उसके साथ ही उन्हें लैपटॉप चाहिए होता है और महंगा मोबाइल भी हाथ में होना ही चाहिए। उनकी पार्टियां भी होती हैं जो वह महंगे रेस्त्रां में जाकर मनाते हैं। इन सब में कोई कसर उन्हें सहन नहीं होती।

ऐसी आदतों वाले बच्चे दिमागी तौर पर आत्मकेंद्रित और किसी हद तक स्वार्थी भी हो जाते हैं। अपने अतिरिक्त वह अन्य किसी वस्तु पर ध्यान ही नहीं देते। अभी पिछले दिनों यह भी सुना था कि अपनी मनपसंद कोचिंग पाने के लिए वह जिद ठान लेते हैं भले ही उसके लिए पैरेंट्स को कितना कुछ आर्थिक भार सहना पड़े। इस तरह की जिदें - जिसमें बाइक लेना, महंगा मोबाइल लेना या वयस्क न होने पर भी गाड़ी चलाने की जिद करना आदि शामिल हो इन सबको जिद से भी बढ़कर दुराग्रह कहा जाएगा और दुराग्रह को परिणाम की हानि के कारण स्वीकारा नहीं जाना चाहिए। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पैरेंट्स और स्कूल दोनों मिलकर बच्चों के जीवन का, प्राणों का महत्व समझाएं और बेजान व निष्प्राण वस्तुओं के मोह और आकर्षण का दुराग्रह न करने का पाठ पढ़ाएं।

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