-वीना नागपाल
महिलाएं कई कारणों से अकेली हो रही हैं जो भी कारण उनके अकेले होने के हों पर, क्या उन्हें इनकी वजह से मुसीबतें झेलना पड़ेंगी या कदम-कदम पर परेशान होना पडेगा? ऐसा तो नहीं होना चाहिए। समाज एक बदलाव से गुजर रहा है। कभी यह बदलाव महिलाओं के लिए हितकारी हैं तो कहीं यह उनके लिए ऐसी अप्रिय स्थितियां बना रहे हैं कि उन्हें अकेले ही अपने अस्तित्व का संघर्ष करना पड़ रहा है।
महिलाओं को तलाक होने पर अथवा परित्याक्ता होने पर अकेले ही सब कुछ झेलना पड़ता है। इसमें और भी अप्रिय स्थिति तब बनती है जब उन्हें अपने बच्चों के लिए बार-बार पिता का नाम लेना जरूरी हो जाता है। वह तो अपनी संतान को अकेले ही अपने बल-बूते पर पालती है व उनकी देखभाल करती है तथा उनको किसी मुकाम पर पहुंचाने के लिए निरंतर संघर्ष करती है पर, पता नहीं किस आधार पर बच्चों की पहचान के लिए उसे तब भी उनके पिता का नाम बताना आवश्यक बना हुआ है।
पिछले दिनों न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया। एक महिला ने याचिका लगाई। पति से वर्षो से तलाक हो चुका था। उसकी बेटी बड़ी हो चुकी थी और अब विदेश जाना चाहती थी। जब उसके पासपोर्ट बनाने की बात आई तो उसका पासपोर्ट केवल इसलिए नहीं बन रहा था कि एक कॉलम में पिता के हस्ताक्षर चाहिए थे जो अब मिलना असंभव थे। उसके पिता के हस्ताक्षर के बैगर उसका पासपोर्ट ही नहीं बन रहा था। तब उस महिला ने न्यायालय में याचिका लगाई। न्यायालय ने अपने महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि पासपोर्ट के लिए पिता का नाम लिखना कोई अनिवार्य शर्त नहीं होना चाहिए। वास्तव में न्यायपालिका का यह निर्णय एक अकेली महिला के पक्ष मेंं बहुत हितैषी है। कई बार स्कूल के प्रवेश पत्र में तथा उच्च शिक्षण संस्थाओं में पिता के नाम का एक कॉलम होता है और उसमें पिता के हस्ताक्षर होना अनिवार्य होता है। ऐसा क्यों होना चाहिए? मां के हस्ताक्षरों से काम क्यों नहीं चलना चाहिए? मां क्यों नहीं इसकी अधिकारी होना चाहिए कि उसके हस्ताक्षरों से तथा केवल उसके नाम से संतान की पहचान हो। आखिर वही तो वह शक्ति है जो अपनी संतान की वास्तविक संरक्षिका है। मां को ही इतना अधिकार संपन्न कर देना चाहिए कि उसका नाम ही संतान की पहचान हो, जहां मातृ सत्तात्मक समाज है वहां ऐसा ही होता है तब सब समाजों में यही व्यवस्था सर्वमान्य क्यों नहीं है? दरअसल पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुष ने सत्ता व प्रभुत्व के सारे सूत्र अपने ही हाथ में रखने के लिए परिवार तक में अपने ही नाम के चलन को सर्वोपरि रखा। उसने महिला को दोयम बनाने की कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि जन्म देने वाली मां के नाम का अपनी संतान के लिए उल्लेख करने की उसने कोई व्यवस्था नहीं रखी, जिससे कि संतान के संबंध में भी वही सर्वोपरि रहा। आज जो स्थिति है उसमें कई महिलाएं अकेले ही अपनी संतान को पालते हुए संघर्ष कर रही हैं। केन्द्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय भी महिलाओं की इस स्थिति के लिए कुछ सकारात्मक कदम उठाने के लिए प्रतिबद्धता दिखा रहा है। वह भी ऐसा कानून लाएगा जिसमें संतान के लिए केवल अपनी मां की पहचान और परिचय देना पर्याप्त हो।