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खतरों से भरी है निर्भीक पत्रकारिता

By Dabangdunia News Service | Publish Date: May 21 2016 10:48AM | Updated Date: May 21 2016 2:59PM
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-राजीव रंजन तिवारी
- समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


बेहद दुखद है कि अब देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद की धरती सीवान (बिहार) दूषित जैसी प्रतीत होने लगी है। पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के बाद बार-बार यही सवाल लोगों के मन-मस्तिष्क में घूम रहा है कि आखिर इस तरह के हालात क्यों बन गए। डरते हुए ही सही, लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के पीछे शहाबुद्दीन का हाथ है। हत्या की जांच सीबीआई को सौंप दी गई है। मामले में कुछ गिरफ्तारी तो हुई है मगर सुराग नहीं मिले हैं। सब की निगाह हत्या के कारणों पर है। सीबीआई जांच से यह बात साबित हो सकेगी कि इस मामले में शहाबुद्दीन की क्या भूमिका थी। विपक्ष के तमाम आरोपों की सुई शहाबुद्दीन की तरफ जा रही है। शहाबुद्दीन जेल में है लेकिन नई महागठबंधन सरकार बनते ही उनका सिक्का फिर चलने लगा।

पहले जेल में मंत्री मिलने गए फिर आरजेडी ने पार्टी की एक्जिक्यूटिव कमेटी में शामिल कर लिया और अब चुनावी हिंसा से लेकर कत्ल तक में शहाबुद्दीन का नाम उछल रहा है। पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या में सीवान के माफिया डॉन शहाबुद्दीन का कनेक्शन सामने आने से बिहार में महाजंगल राज के नारे भी गूंजने लगे हैं। जेल में बंद शहाबुद्दीन को कत्ल के मामले में उम्र कैद की सजा हुई है, लेकिन उसकी दहशत आज भी कायम है। हाल ही में जेल में बंद शहाबुद्दीन के साथ नीतीश सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री अब्दुल गफूर देखे गए। आरोप है कि 6 मार्च को मंत्रीजी के साथ आरजेडी विधायक हरिशंकर यादव भी थे। ये मुलाकात जेल मैनुअल की धज्जियां उड़ाते जेल सुपरिटेंडेंट के दफ्तर में हुई। इस मुलाकात पर सवाल उठते ही जांच का लॉलीपॉप थमा दिया गया, लेकिन इससे ये साफ हो गया कि सीवान का ये माफिया डॉन जेल में रहते हुए भी क्या अहमियत रखता है। कभी बिहार की सियासत में शहाबुद्दीन की तूती बोलती थी। सीवान में शहाबुद्दीन की मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिलता था। जेल में रहते हुए चुनाव तक जीत गए।

लालू यादव की गद्दी जाते ही उनका आतंक कुछ हद तक घटा। मर्डर केस में सजा होते ही चुनाव लड़ने पर भी रोक लगी। लेकिन पत्रकार की हत्या ने एक बार सीवान को पुराने शहाबुद्दीन की याद दिला दी।  उल्लेखनीय है कि पुलिस ने शहाबुद्दीन के करीबी माने जाने वाले लोगों को गिरफ्तार तो किया है मगर अभी कोई भी बात ठोस रूप से सामने नहीं आई है। इस मामले में गिफ्तार किये गए उपेंद्र सिंह ने पूछताछ के दौरान बताया है कि 15 दिन पहले शहाबुद्दीन ने हत्या का इशारा किया था क्योंकि जेल से रिहा हुए उसके तीन लोगों में से एक ने राजदेव रंजन की हत्या के लिए जरूरी संसाधन जुटाने में मदद मांगी थी। उपेंद्र सिंह ने मदद करने से इनकार कर दिया था। उपेंद्र सिंह जून 2015 में बीजेपी सांसद ओम प्रकाश यादव के प्रवक्ता श्रीकांत भारती की हत्या के आरोप में गिरफ्तार हुआ था मगर जमानत पर बाहर आ गया। श्रीकांत भारती की हत्या नवंबर 2014 में हुई थी। सीबीआई की जांच के दौरान जरूरी है कि श्रीकांत शर्मा की हत्या के मामलों की भी तफ्तीश की जाए और यह भी देखा जाए कि जेल में रहते हुए शहाबुद्दीन किन सुविधाओं के साथ रह रहा था। क्या श्रीकांत भारती की हत्या के तार भी जेल से जुड़े हैं।  राजनीति और भ्रष्टाचार को कवर कर रहे पत्रकारों की हत्या के मामले में भारत का रिकॉर्ड बहुत खराब है । इस मामले में दुनिया के जिन 14 देशों का रिकॉर्ड सबसे खराब है उनमें सोमालिया भी है और दक्षिणी सूडान भी। भ्रष्टाचार और राजनीतिक पत्रकारिता करते हुए मारे जाना और गृह युद्ध या युद्ध कवर करते हुए मारे जाने में अंतर है। अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के मुताबिक भारत 2015 में पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक तीन देशों में से एक रहा। 2015 में भारत में पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी ज्यादा नौ रिपोर्टरों की जान गई। इनमें से चार की हत्या के कारणों का पता ही नहीं चला।

न्यूयॉर्क की संस्था द कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट जो दुनिया भर में प्रेस की आजादी पर काम करती है, हर पत्रकार की मौत की जांच करती है कि क्या मौत काम से जुड़ी वजहों से हुई। वो मौत को दो वर्गों में बांटती है। अगर इस बात की पुष्टि हो जाए कि किसी पत्रकार की हत्या उसके पेशे की वजह से हुई तो उसे मोटिव कन्फर्म माना जाता है। 1992 से भारत में पत्रकारों की हत्या के मामले बढ़े हैं। 1999 से 2004 के बीच ये सबसे ज्यादा हुईं। पत्रकारों की कुल हत्याओं के मामले में भारत दुनिया में दसवें नंबर पर हैं। भारत के मामले में 1992 से जिन 25 पत्रकारों की हत्या हुई उनमें से अधिकतर प्रिंट के रिपोर्टर या एडिटर थे। इन्हें भ्रष्टाचार, राजनीति या अपराध को कवर करने का जिम्मा दिया गया था। उन्हें राजनीतिक या आपराधिक गुटों ने मारा।

दरअसल, ताकतवर लोगों से लड़ना आसान नहीं होता। समाज परिवार भी दबाव डाल कर कदम पीछे खींच लेता होगा। मुआवजा तो मिल जाता है मगर इंसाफ न मिले तो मुआवजा किसी काम का नहीं। बहरहाल, बिहार और झारखंड में पत्रकारों की हत्या के बाद ये सवाल उठा है कि लोकतांत्रिक भारत पत्रकारों के लिए इतना खतरनाक क्यों है? पिछले कुछ दिनों में बिहार और झारखंड में दो पत्रकारों की हत्या कर दी गई। इससे एक बार फिर यह आशंका पुष्ट हो गई कि भारत में निर्भीक पत्रकारिता करना खतरों से भरा है। यह भी सवाल उठ रहा है कि देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद की धरती आखिर दूषित क्यों हो गई है?

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